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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘बताना क्या है। पश्चिमी सभ्यता की बुराइयाँ हम सब जानते ही हैं। वही बयान कर देना।’

‘तुम जानते होगे, मुझे तो एक भी नहीं मालूम।’

‘एक तो यह तालीम ही है। जहाँ देखो वहीं दुकानदारी। अदालत की दुकान, इल्म की दुकान, सेहत की दुकान। इस एक पाइंट पर बहुत कुछ कहा जा सकता है।’

‘अच्छी बात है, जाऊँगा।

अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोंपड़ी छोड़कर मरे थे; मगर समरकान्त ने अपने बाहुबल से लाखों की सम्पत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी से गुड़ और चावल की बारी आयी। तीन बरस तक लगातार उनके व्यापार का क्षेत्र बढ़ता ही गया। अब आढतें बन्द कर दी थीं। केवल लेन-देन करते थे। जिसे कोई महाजन रुपये न दे, उसे वह बेखटक दे देते और वसूल भी कर लेते! उन्हें आश्चर्य होता था कि किसी के रुपये मारे कैसे जाते हैं। ऐसा मेहनती आदमी भी कम होगा। घड़ी रात रहे गंगा-स्नान करने चले जाते और सूर्योदय के पहले विश्वनाथजी के दर्शन करके दुकान पर पहुँच जाते। वहाँ मुनीम को ज़रूरी काम समझा कर तगादे पर निकल जाते और तीसरे पहर लौटते। भोजन करके फिर दुकान पर आ जाते और आधी रात तक डटे रहते। थे भी भीमकाय। भोजन तो एक बार ही करते थे, पर खूब डटकर। दो ढाई सौ मुग्दर के हाथ अभी तक फैरते थे। अमरकान्त की माता का उसके बचपन में ही देहान्त हो गया था। समरकान्त ने मित्रों के कहने-सुनने से दूसरा विवाह कर लिया था। उस सात साल के बालक ने नयी माँ का बड़े प्रेम से स्वागत किया; लेकिन उसे जल्दी मालूम हो गया कि उसकी नयी माता उसकी ज़िद और शरारतों को क्षमा दृष्टि से नहीं देखतीं, जैसे उसकी माँ देखती थीं। वह अपनी माँ का अकेला लाडला लड़का था, बड़ा जिद्दी, बड़ा नटखट।
जो बात मुँह से निकल गयी, उसे पूरा करके ही छोड़ता। नई माताजी बात-बात पर डाँटती थी। यहाँ तक कि उसे माता से द्वेष हो गया। जिस बात को वह मना करतीं, उसे वह अदबदाकर करता। पिता से भी ढीठ हो गया था। पिता और पुत्र में स्नेह का बंधन न रहा। लालाजी जो काम करते, बेटे को उससे अरुचि होती। वह मलाई के प्रेमी थे, बेटे को मलाई से अरुचि थी। वह पूजा-पाठ बहुत करते थे, लड़का इसे ढोंग समझता था। वह परले सिरे के लोभी थे; लड़का पैसे को ठीकरा समझता था।

मगर कभी-कभी बुराई से भलाई पैदा हो जाती है। पुत्र सामान्य रीति से पिता का अनुगामी होता है। महाजन का बेटा महाजन, पण्डित का बेटा पण्डित, वकील का बेटा वकील, किसान का किसान होता है; मगर यहाँ इस द्वेष ने महाजन के पुत्र को महाजन का शत्रु बना दिया। जिस बात का पिता ने विरोध किया, वह पुत्र के लिए मान्य हो गयी, और जिसको सराहा, वह त्याज्य। महाजनी के हथकण्डे और षड्यंत्र उसके सामने रोज़ ही रचे जाते थे।

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