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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


उसे इस व्यापार से घृणा होती थी। इसे चाहे पूर्व संस्कार कह लो; पर हम तो यही कहेंगे कि अमरकान्त के चरित्र का निर्माण पिता-द्वेष के हाथों हुआ।

ख़ैरियत यह हुई कि उसके कोई सौतेला भाई न हुआ। नहीं तो शायद वह घर से निकल गया होता। समरकान्त अपनी सम्पत्ति को पुत्र से ज़्यादा मूल्यवान समझते थे। पुत्र के लिए तो सम्पत्ति की कोई ज़रूरत न थी; पर सम्पत्ति के लिए पुत्र की ज़रूरत थी। विमाता की तो इच्छा यही थी उसे वनवास देकर अपनी चहेती नैना के लिए रास्ता साफ कर दे; पर समरकान्त इस विषय में निश्चल रहे। मज़ा यह था कि नैना स्वयं भाई से प्रेम करती थी, और अमरकान्त के हृदय में अगर घर वालों के लिए कहीं कोमल स्थान था, तो वह नैना के लिए था। नैना की सूरत भाई से इतनी-मिलती-जुलती थी, जैसे सगी बहन हो। इस अनुरूपता ने उसे अमरकान्त के और भी समीप ला दिया था। माता-पिता के इस दुर्व्यवहार को वह इस स्नेह के नशे में भुला दिया करता था। घर में कोई बालक न था और नैना के लिए किसी साथी का होना अनिवार्य था। माता चाहती थीं, नैना भाई से दूर-दूर रहे। वह अमरकान्त को इस योग्य न समझती थीं कि वह उनकी बेटी के साथ खेले। नैना की बाल–प्रकृति इस कूटनीति के झुकाए न झुकी। भाई-बहन में यह स्नेह यहाँ तक बढ़ा कि अन्त में विमातृत्व से मातृत्व को भी परास्त कर दिया। विमाता ने नैना को भी आँखों से गिरा दिया और पुत्र की कामना लिए संसार से विदा हो गयीं।

अब नैना घर में अकेली रह गयी। समरकान्त बाल–विवाह की बुराइयाँ समझते थे। अपना विवाह भी न कर सके। वृद्ध-विवाह की बुराइयाँ भी समझते थे। अमरकान्त का विवाह करना ज़रूरी हो गया। अब इस प्रस्ताव का विरोध कौन करता?

अमरकान्त की अवस्था उन्नीस साल से कम न थी; पर देह और बुद्धि को देखते हुए, अभी किशोरावस्था ही में था। देह का दुर्बल, बुद्धि का मंद। पौधे को कभी मुक्त प्रकाश न मिला, कैसे बढ़ता, कैसे फैलता? बढ़ने और फैलने के दिन कुसंगति और असंयम में निकल गये। दस साल पढ़ते हो गये थे और अभी ज्यों-त्यों करके आठवें में पहुँचा था। किन्तु विवाह के लिए यह बात बातें नहीं देखी जातीं। देखा जाता है धन, विशेषकर उस बिरादरी में, जिसका उद्यम ही व्यवसाय हो। लखनऊ के एक धनी परिवार से बातचीत चल पड़ी। समरकान्त की तो लार टपक पड़ी। कन्या के घर में विधवा माता के सिवा निकट का कोई सम्बन्धी न था, और धन की कहीं थाह नहीं। ऐसी कन्या बड़े भागों से मिलती है। उसकी माता ने बेटे की साध बेटी से पूरी की थी। त्याग की जगह भोग, शील की जगह तेज, कोमल की जगह तीव्र का संस्कार किया था। सिकुड़ने और सिमटने का उसे अभ्यास न था। और वह युवक–प्रकृति ब्याही गयी युवती-प्रकृति के युवक से, जिसमें पुरुषार्थ का कोई गुण नहीं। अगर दोनों के कपड़े बदल दिए जाते, तो एक-दूसरे के स्थानापन्न हो जाते। दबा हुआ पुरुषार्थ ही स्त्रीत्व है।

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