उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
९
पठानिन की गिरफ़्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसे किसी को आशा न थी। जीर्ण वृद्धावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीरु और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। लेकिन ऐसे निर्लज्जों की अब भी कमी न थी, जो कहते थे– ‘इसके लिए जीवन में अब क्या धरा है?
मरना ही तो है। बाहर न मरी, जेल में मरी। हमें तो अभी बहुत दिन जीना है, बहुत कुछ करना है, हम आग में कैसे कूदें?’
संध्या का समय है। मज़दूर अपने-अपने काम छोड़कर, छोटे दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बन्द करके घटनास्थल की ओर भागे चले जा रहे हैं। पठानिन अब वहाँ नहीं है, जेल पहुँच गयी होगी। हथियारबन्द पुलिस का पहरा है, कोई जलसा नहीं हो सकता, कोई भाषण नहीं हो सकता, बहुत से आदमियों का जमा होना भी ख़तरनाक है, पर इस समय कोई कुछ नहीं सोचता, किसी को कुछ दिखाई नहीं देता– सब किसी वेगमय प्रवाह में बहे जा रहे हैं। एक क्षण में सारा मैदान जन-समूह से भर गया।
सहसा लोगों ने देखा, एक आदमी ईंटों के एक ढेर पर खड़ा कुछ कहा रहा है। चारों ओर से दौड़-दौड़कर लोग वहाँ जमा हो गये-जन-समूह का एक विराट सागर उमड़ा हुआ था। यह आदमी कौन है? लाला समरकान्त! जिनकी बहू जेल में है, जिनका लड़का जेल में है।
‘अच्छा यह, लाला हैं। भगवान बुद्धि दे, तो इस तरह। पाप से जो कुछ कमाया, वह पुण्य में लुटा रहे हैं।’
‘है बड़ा भगवान।’
‘भगवान न होता, तो बुढ़ापे में इतना जस कैसे कमाता!’
‘सुनो, सुनो!’
‘वह दिन आयेगा, जब इसी ज़गह ग़रीबों के घर बनेंगे जहाँ हमारी माता गिरफ़्तार हुई है, वहीं एक चौक बनेगा और उस चौक के बीच में माता की प्रतिमा खड़ी की जायेगी। बोलो माता पठानिन की जय!’
दस हज़ार गलों से ‘माता की जय!’ की ध्वनि निकलती है, विकल, उत्तप्त, गम्भीर; मानो ग़रीबों की हाय संसार में कोई आश्रय न पाकर आकाशवासियों से फ़रियाद कर रही है।
‘सुनो-सुनो!’
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