उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
माता ने अपने बालकों के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। हमारे और आपके भी बालक हैं। हम और आप अपने बालकों के लिए क्या करना चाहते हैं, आज इसका निश्चय करना होगा।’
शोर मचाता है–‘हड़ताल, हड़ताल!’
‘हाँ, हड़ताल कीजिए; मगर वह हड़ताल, एक या दो दिन की न होगी, वह उस वक़्त तक रहेगी, जब तक हमारे नगर के विधाता हमारी आवाज़ न सुनेंगे। हम ग़रीब हैं, दीन हैं, दुखी हैं; लेकिन बड़े आदमी अगर ज़रा शान्तिचित्त होकर ध्यान करेंगे, तो उन्हें मालूम हो जायेगा कि उन्हीं दीन-दुखी प्राणियों ही ने उन्हें बड़ा आदमी बना दिया है। ये बड़े-बड़े महल जान हथेली पर रखकर कौन बनाता है? इन कपड़े की मिलों में कौन काम करता है? प्रातः काल द्वार पर दूध और मक्खन लेकर कौन आवाज़ देता है? मिठाइयाँ और फल लेकर कौन बड़े आदमियों के नाश्ते के समय पहुँचता है? सफ़ाई कौन करता है, कपड़े कौन धोता है? सवेरे अखबार और चिट्ठियाँ लेकर पहुंचता है? शहर के तीन-चौथाई आदमी एक-स्थान नहीं! एक बँगले के लिए कई बीघे ज़मीन चाहिए। हमारे बड़े आदमी साफ़-सुथरी हवा और ख़ुली जगह चाहते हैं। उन्हें यह ख़बर नहीं है कि जहाँ असंख्य प्राणी दुर्गन्ध और अन्धकार में पड़े भयंकर रोगों से मर-मरकर रोग के कीड़े फैला रहे हों, वहाँ खुले बँगले में रहकर भी वह सुरक्षित नहीं हैं; यह किसकी ज़िम्मेदारी है कि शहर के छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सभी आदमी स्वस्थ रह सकें? अगर म्युनिसिपैलिटी इस प्रधान कर्त्तव्य को नहीं पूरा कर सकती, तो उसे तोड़ देना चाहिए। रईसों और अमीरों की कोठियों के लिए, बगीचों के लिए, महलों के लिए, क्यों इतनी उदारता से ज़मीन दे दी जाती है? इसलिए कि हमारी म्युनिसिपैलिटी ग़रीबों की जान का कोई मूल्य नहीं समझती। उसे रुपये चाहिए, इसलिए कि बड़े-बड़े अधिकारियों को बड़ी-बड़ी तलब दी जाये। वह शहर को विशाल भवनों से अलंकृत कर देना चाहती है। उसे स्वर्ग की तरह सुन्दर बना देना चाहती है; पर जहाँ की अँधेरी दुर्गन्धपूर्ण गलियों में जनता पड़ी कराह रही हो, वहाँ इन विशाल भवनों से क्या होगा? यह तो वही बात है कि कोई देह के कोढ़ को रेशमी वस्त्रों से छिपाकर इठलाता फिरे। सज्जनों! अन्याय करना जितना बड़ा पाप है, उतना ही बड़ा पाप अन्याय सहना भी है। आज निश्चय कर लो कि तुम यह दुर्दशा न सहोगे। यह महल और बँगले नगर की दुर्बल देह पर छाले हैं, मसवृद्धि हैं। इन मसवृद्धियों को काटकर फेंकना होगा। जिस ज़मीन पर हम खड़े हैं; वहाँ कम-से-कम दो हज़ार छोटे-छोटे सुन्दर घर बन सकते हैं, जिनमें कम-से-कम दस हज़ार प्राणी आराम से रह सकते हैं। मगर यह सारी ज़मीन चार-पाँच बँगलों के लिए बेची जा रही है। म्युनिसिपैलिटी को दस लाख रुपये मिल रहे हैं। इसे वह कैसे छोड़े? शहर के दस हज़ार मज़दूरों की जान दस लाख के बराबर भी नहीं!’
एकाएक पीछे के आदमियों ने शोर मचाया–‘पुलिस! पुलिस आ गयी!’
कुछ लोग भागे, कुछ लोग सिमटकर और आगे बढ़ आये।
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