लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


लाला समरकान्त बोले–‘भागो मत, भागो मत, पुलिस मुझे गिरफ़्तार करेगी। मैं उसका अपराधी हूँ। और मैं ही क्यों, मेरा सारा घर उसका अपराधी है। मेरा लड़का जेल में है, मेरी बहू और पोता जेल में हैं। मेरे लिए अब जेल के सिवा और कहाँ ठिकाना है। मैं तो जाता हूँ। (पुलिस से) वहीं ठहरिए साहब, मैं ख़ुद आ रहा हूँ। मैं तो जाता हूँ, मगर यह कहे जाता हूँ कि अगर लौटकर मैंने यहाँ अपने ग़रीब भाइयों के घरों का पाँतियाँ फूलों की भाँति लहलहाती न देखी, तो यहीं मेरी चिता बनेगी।’

लाला समरकान्त कूदकर ईंटों के टीले से नीचे आये और भीड़ को चीरते हुए जाकर पुलिस कप्तान के पास खड़े हो गये। लारी तैयार थी, कप्तान ने उन्हें लारी में बैठाया। लारी चल दी।
 
‘लाला समरकान्त की जय!’ की गहरी, हार्दिक वेदना से भरी हुई ध्वनि किसी बँधुए पशु की भाँति तड़पती, छटपटाती ऊपर को उठी, मानो परवशता के बन्धन को तोड़कर निकल जाना चाहती हो।

एक समूह लारी के पीछे दौड़ा; अपने नेता के लिए नहीं, केवल श्रद्धा के आवेश में, मानो कोई प्रसाद, कोई आशीर्वाद पाने की सरल उमंग में। जब लारी गर्द में लुप्त हो गयी, तो लोग लौट पड़े।

‘यह कौन खड़ा बोल रहा है?’

‘कोई औरत जान पड़ती है।’

‘कोई भले घर की औरत है।’

‘अरे यह तो वही हैं, लालाजी की समधिन, रेणुका देवी।’

‘अच्छा! जिन्होंने पाठशाले के नाम अपनी सारी जमाजथा लिख दी।’

‘सुनो, सुनो!’
प्यारे भाइयो, लाला समरकान्त जैसा योगी जिस सुख के लोभ से चलायमान हो गया, वह कोई बड़ा भारी सुख होगा; फिर मैं तो औरत हूँ, और औरत लोभिन होती ही है। आपके शास्त्र-पुराण सब यही कहते हैं। फिर मैं उस लोभ को कैसे रोकूँ? मैं धनवान की बहू, धनवान की स्त्री, भोग-विलास में लिप्त रहने वाली, भजन-भाव में मगन रहने वाली, मैं क्या जानूँ; ग़रीबों को क्या कष्ट है, उन पर क्या बीतती है? लेकिन इस नगर ने मेरी लड़की छीन ली, मेरी ज़ायदाद छीन ली, और अब मैं भी तुम लोगों ही की तरह ग़रीब हूँ। अब मुझे इस विश्वनाथ की पुरी में एक झोंपड़ा बनवाने की लालसा है। आपको छोड़कर मैं और किसके पास माँगने जाऊँ? यह तुम्हारा नगर है। तुम्हीं इसके राजा हो। मगर सच्चे राजा की भाँति तुम भी त्यागी हो। राजा हरिश्चन्द्र की भाँति अपना सर्वस्व दूसरों को देकर, भिखारियों को अमीर बनाकर, तुम आज भिखारी हो गये हो। जानते हो वह छल से खोया हुआ राज्य तुमको कैसे मिलेगा? तुम डोम के हाथों बिक चुके। अब तुम्हें रोहित और शैव्या को त्यागना पड़ेगा। तभी देवता तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होंगे मेरा मन कह रहा है कि देवताओं में तुम्हारा राज्य दिलाने की बातचीत हो रही है। आज नहीं तो कल तुम्हारा राज्य तुम्हारे अधिकार में आ जायेगा। उस वक़्त मुझे भूल न जाना। मैं तुम्हारे दरबार में अपना प्रार्थना-पत्र पेश किए जा रही हूँ।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book