उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सहसा पीछे से शोर मचा–‘फिर पुलिस आ गयी।’
‘आने दो। उनका काम है अपराधियों को पकड़ना। गिरफ़्तार न कर लिए गये, तो आज नगर में डाका मारेंगे, चोरी करेंगे, या कोई षड्यन्त्र रचेंगे। मैं कहती हूँ, कोऊ संस्था जो जनता पर न्यायबल से नहीं, पशुबल से शासन करती है, वह लुटेरों की संस्था है। जो लोग ग़रीबों का हक़ लूटकर ख़ुद मालदार हो रहे हैं, दूसरों के अधिकार छीनकर अधिकारी बने हुए हैं, वास्तव में वहीं लुटेरे हैं। भाइयों, मैं तो जाती हूँ, मगर मेरा प्रार्थना-पत्र आपके सामने है। इस लुटेरी म्युनिसिपैलिटी को ऐसा सबक़ दो कि फिर उसे ग़रीबों को कुचलने का साहस न हो। जो तुम्हें रौंदे, उसके पाँव में काँटे बनकर चुभ जाओ। कल से ऐसी हड़ताल करो कि धनियों और अधिकारियों को तुम्हारी शक्ति का अनुभव हो जाय, उन्हें विदित हो जाय कि तुम्हारे सहयोग के बिना वे धन को भोग सकते हैं, न अधिकार को। उन्हें दिखा दो कि तुम्हीं उनके हाथ हो, तुम्हीं उनके पाँव हो, तुम्हारे बग़ैर वे अपंग हैं।’
वह टीले से नीचे उतरकर पुलिस कर्मचारी की ओर चलीं तो सारा जन-समूह ताकता रह गया। बाहर निकलकर मर्यादा का उल्लंघन कैसे करें? वीरों के आँसू बाहर निकलकर सूखते नहीं, वृक्षों के रस की भाँति भीतर ही रहकर वृक्ष को पल्लवित और पुष्पित कर देते हैं। इतने बड़े समूह में एक कण्ठ से भी जयघोष नहीं निकला। क्रिया–शक्ति अन्तर्मुखी हो गयी थी; मगर जब रेणुका मोटर में बैठ गयीं और मोटर चली, तो श्रद्धा की वह लहर मर्यादाओं को तोड़कर एक पतली, गहरी वेगमयी धारा में निकल पड़ी।
एक बूढ़े आदमी ने डाँटकर कहा–‘जय-जय बहुत कर चुके। अब घर जाकर आटा-दाल जमा कर लो। कल से लम्बी हड़ताल करनी है।’
दूसरे आदमी ने इसका समर्थन किया–‘और क्या! यह नहीं कि यहाँ तो गला फाड़-फाड़ चिल्लायें और सवेरा होते ही अपने-अपने काम पर चल दिये।’
अच्छा, यह कौन खड़ा हो गया?’
‘वाह, इतना भी नहीं पहचानते? डॉक्टर साहब हैं।’
‘डॉक्टर साहब भी आ गये। तब तो फ़तह है!’
‘कैसे-कैसे शरीफ़ आदमी, हमारी तरफ़ से लड़ रहे हैं। पूछो, इन बेचारों को क्या लेना है, जो अपना सुख-चैन छोड़कर, अपने बराबर वालों से दुश्मनी मोल लेकर, जान हथेली पर लिए तैयार हैं।’
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