उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘हमारे ऊपर अल्लाह का रहम है। इन डॉक्टर साहब ने पिछले दिनों जब प्लेग फैला था, ग़रीबों की ऐसी ख़िदमत की कि वाह! जिनके पास अपने भाई-बन्द हैं तक न खड़े होते थे, वहाँ बेधड़क चले जाते थे और दवा-दारू, रुपया-पैसा, सब तरह की मदद तैयार! हमारे हाफ़िज़जी तो कहते थे, यह अल्लाह का फ़रिश्ता है।’
‘सुनो, सुनो, बकवास करने को रातभर पड़ी है।’
‘भाइयो! पिछली बार जब आपने हड़ताल की थी, उसका क्या नतीजा हुआ? अगर फिर वैसी हड़ताल हुई, तो उससे अपना ही नुक़सान होगा। हममें से कुछ लोग चुन लिये जायेंगे, बाक़ी आदमी मतभेद हो जाने के कारण आपस में लड़ते रहेंगे और असली उद्देश्य की किसी को सुधि न रहेगी! सरग़नों के हटते ही पुरानी अदावतें निकाली जाने लगेंगी, गड़े मुरदे उखाड़े जाने लगेंगे; न कोई संगठन रह जायेगा, न कोई ज़िम्मेदारी। सभी पर आतंक छा जायेगा, इसलिए अपने दिल को टटोलकर देख लो। अगर उसमें कच्चापन हो, तो हड़ताल का विचार दिल से निकाल डालो। ऐसी हड़ताल से दुर्गन्ध और गन्दगी में मरते जाना कहीं अच्छा है। अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारा दिल भीतर से मज़बूत है; उसमें हानि सहने की, भूखों मरने की, कष्ट झेलने की सामर्थ्य है, तो हड़ताल करो। प्रतिज्ञा कर लो कि जब तक हड़ताल रहेगी, तुम अदावतें भूल जाओगे, नफ़े-नुक़सान की परवाह न करोगे। तुमने कबड्डी तो खेली ही होगी? कबड्डी में अक्सर ऐसा होता है कि एक तरफ़ के सब गुइयाँ मर जाते हैं केवल एक खिलाड़ी रह जाता है; मगर वह एक खिलाड़ी भी उसी तरह क़ानून-कायदे से खेलता चला जाता है। उसे अन्त तक आशा बनी रहती है कि वह अपने मरे गुइयों को जिला लेगा और सब-के-सब फिर शक्ति से बाजी जीतने का उद्योग करेंगे। हरेक खिलाड़ी का एक ही उद्देश्य होता है–पाला जीतना। इसके सिवा उस समय उसके मन में कोई भाव नहीं होता। किस गुइयाँ ने उसे गाली दी थी, कब उसका कनकौधा फाड़ डाला था, या कब उसको घूँसा मारकर भागा था, इसके उसे ज़रा भी याद नहीं आती। उसी तरह इस समय तुम्हें अपना मन बनाना पड़ेगा। मैं यह दावा नहीं करता कि तुम्हारी जीत ही होगी। जीत भी हो सकती है, हार भी हो सकती है। जीत या हार से हमें प्रयोजन नहीं। भूखा बालक भूख से विकल होकर रोता है। वह यह नहीं सोचता कि रोने से उसे भोजन मिल ही जायेगा। सम्भव है माँ के पास पैसे न हों, या उसका जी अच्छा न हो; लेकिन बालक का स्वभाव है कि भूख लगने पर रोए; इसी तरह हम भी रो रहे हैं। हम रोते-रोते थककर सो जायेंगे, या माता वात्यसल्य से विवश होकर हमें भोजन दे देगी। यह कौन जानता है? हमारा किसी से बैर नहीं, हम तो समाज के सेवक हैं, हम बैर करना क्या जानें...’
उधर पुलिस कप्तान थानेदार को डाँट रहा था–जल्द लारी मँगवाओ। तुम बोलता था, अब कोई आदमी नहीं है। अब यह कहाँ से निकल आया?’
थानेदार ने मुँह लटकाकर कहा–‘हुजूर, यह डॉक्टर साहब तो आज पहली ही बार आये हैं इनकी तरफ़ तो हमारा ग़ुमान भी नहीं था। कहिए तो गिरफ़्तार करके ताँगे पर ले चलूँ।’
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