उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘ताँगे पर! सब आदमी ताँगे को घेर लेगा! हमें फ़ायर करना पड़ेगा। जल्दी दौड़कर कोई टैक्सी लाओ।’
डॉक्टर साहब शान्तिकुमार कह रहे थे–
‘हमारा किसी से बैर नहीं है। जिस समाज़ में गरीबों के लिए स्थान नहीं, वह उस घर की तरह है जिसकी बुनियाद न हो। कोई हल्का-सा धक्का भी उसे ज़मीन पर गिरा सकता है। मैं अपने धनवान और विद्वान और सामर्थ्यवान भाइयों से पूछता हूँ, क्या यही न्याय है कि एक भाई तो बँगले में रहे, दूसरे को झोंपड़ा भी नसीब न हो? क्या तुम्हें अपने ही जैसे मनुष्यों को इस दुर्दशा में देखकर शर्म नहीं आती? तुम कहोगे, हमने बुद्धि-बल से धन कमाया है, क्यों न उसका भोग करें। इस बुद्धि का नाम स्वार्थ-बुद्धि है, और जब समाज का संचालन स्वार्थ बुद्धि के हाथ में आ जाता है, न्याय-बुद्धि गद्दी से उतार दी जाती है, तो समझ लो कि समाज में कोई विप्लव होने वाला है। गरमी बढ़ जाती है, तो तुरन्त ही आँधी आती है। मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती। समता जीवन का तत्त्व है। यही एक दशा है, जो समाज को स्थिर रख सकती है। थोड़े से धनवानों को हरगिज़ यह अधिकार नहीं है कि वे जनता कि ईश्वरदत्त वायु और प्रकाश का अपहरण करें। यह विशाल जनसमूह उसी अनाधिकारी, उसी अन्याय का रोषमय रुदन है। अगर धनवानों की आँखें अब भी नहीं खुलतीं, न जागे तो उन्हें पछताना पड़ेगा। यह जागृति का युग है। जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती। जागे हुए आदमी के घर में चोर और डाकू की गति नहीं...’
इतने में टैक्सी आ गयी। पुलिस कप्तान कई थानेदारों और कांस्टेबलों के साथ समूह की तरफ़ चला।
थानेदार ने पुकारकर कहा–‘डॉक्टर साहब, आपका भाषण तो समाप्त हो चुका होगा। अब चले आइए, हमें क्यों वहाँ आना पड़े?’
शान्तिकुमार ने ईंट-मंच पर खड़े-खड़े कहा–‘मैं अपनी ख़ुशी से तो गिरफ़्तार होने न आऊँगा, आप जबरदस्ती गिरफ़्तार कर सकते हैं। और फिर अपने भाषण का सिलसिला जारी कर दिया–
‘हमारे धनवानों को किसका बल है? पुलिस का। हम पुलिस ही से पूछते हैं, अपने कांस्टेबल भाइयों से हमारा सवाल है, क्या तुम सभी ग़रीब नहीं हो? क्या तुम और तुम्हारे बाल–बच्चे सड़े हुए अँधेरे, दुर्गन्ध और रोग से भरे बिलों में नहीं रहते? लेकिन यह ज़माने की ख़ूबी है कि तुम अन्याय की रक्षा करने के लिए, अपने ही बाल-बच्चों का गला घोंटने के लिए तैयार खड़े हो...’
कप्तान ने भीड़ के अन्दर जाकर शान्तिकुमार का हाथ पकड़ लिया और उन्हें साथ लिए हुए लौटा। सहसा नैना सामने से आकर खड़ी हो गयी।
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