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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


शान्तिकुमार ने चौंककर पूछा–‘तुम किधर से नैना? सेठजी और देवीजी तो चल दिए, अब मेरी बारी है।’

नैना मुस्कराकर बोली–‘और आपके बाद मेरी।’

‘नहीं, कहीं ऐसा अनर्थ न करना। सब कुछ तुम्हारे ही ऊपर है।’

‘नैना ने कुछ जवाब न दिया। कप्तान डॉक्टर के लिए आगे बढ़ गया। उधर सभा में शोर मचा हुआ था। अब उनका क्या कर्त्तव्य है, इसका निश्चय वह लोग न पाते थे। उनकी दशा पिघलती हुई धातु की–सी थी। उसे जिस तरफ़ चाहें मोड़ सकते हैं। कोई भी चलता हुआ आदमी उनका नेता बनकर उन्हें जिस तरफ़ चाहे ले जा सकता था–सबसे ज़्यादा आसानी के साथ शान्ति-भंग की ओर। चित्त की उस दशा में, जो इन ताबड़तोड़ गिरफ़्तारियों से शान्ति-पथ विमुख हो रहा था, बहुत सम्भव था कि वे पुलिस पर पत्थर फेंकने लगते, या बाज़ार लूटने पर आमादा हो जाते। उसी वक़्त नैना उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी। वह अपनी बग्घी पर सैर करने निकली थी। रास्ते में उसने लाला समरकान्त और रेणुका देवी के पकड़े जाने की ख़बर सुनी। उसने तुरन्त कोचवान को इस मैदान की ओर चलने को कहा, और दौड़ी चली आ रही थी। अब तक उसने अपने पति और ससुर की मर्यादा का पालन किया था। अपनी ओर से ऐसा कोई काम न करना चाहती थी कि ससुराल वालों का दिल दुखे, या उनके असन्तोष का कारण हो; लेकिन यह ख़बर पाकर वह संयत न रह सकी। मनीराम जामे से बाहर हो जायेंगे, लाला धनीराम छाती पीटने लगेंगे, उसे ग़म नहीं। कोई उसे रोक ले, तो वह कदाचित् आत्महत्या कर बैठे। वह स्वभाव से ही लज्जाशील थी। घर के एकान्त में बैठकर यह चाहे भूखों मर जाती, लेकिन बाहर निकलकर किसी से सवाल करना उसके लिए असाध्य था। रोज़ जलसे होते थे; लेकिन उसे कभी कुछ भाषण करने का साहस नहीं हुआ। यह नहीं कि उसमें विचारों का अभाव था, अथवा वह अपने विचारों को व्यक्त न कर सकती थी। नहीं, केवल इसलिए कि जनता के सामने खड़े होने में उसे संकोच होता था। या यों कहो कि भीतर की पुकार कभी इतनी प्रबल न हुई कि मोह और आलस्य के बंधनों को तोड़ देती। बाज़ ऐसे जानवर भी होते हैं, जिनमें एक विशेष आसन होता है। उन्हें आप मार डालिए; पर आगे क़दम न उठायेंगे। लेकिन उस मार्मिक स्थान पर उँगली रखते ही उनमें एक नया उत्साह, एक नया जीवन चमक उठता है। लाला समरकान्त की गिरफ़्तारी ने नैना के हृदय में सामने खड़ी हुई, निश्शंक, निश्चल, एक नयी प्रतिभा, एक नई प्रांजलता से आभासित। पूर्णिमा के रजत प्रकाश में ईंटों के टीले पर खड़ी जब उसने अपने कोमल किन्तु गहरे कण्ठ स्वर से जनता को संबोधन किया, तो जैसे सारी प्रकृति निःस्तब्ध हो गयी।

‘सज्जनों, मैं लाला समरकान्त की बेटी और लाला धनीराम की बहू हूँ। मेरा प्यारा भाई जेल में है, मेरी प्यारी भावज जेल में है, मेरा सोने–सा भतीजा जेल में है, आज मेरे पिताजी भी पहुँच गये।’

जनता की ओर से आवाज़ आयी–‘रेणुका देवी भी?’

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