उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘हाँ, रेणुका देवी भी, जो मेरी माता के तुल्य थीं। लड़की के लिए वही मैका है, जहाँ उसके माँ-बाप, भाई–भावज रहें। और लड़की को मैका जितना प्यारा होता है, उतनी ससुराल नहीं होती। सज्जनों, इस ज़मीन के कई टुकड़े मेरे ससुरजी ने खरीदे हैं। मुझे विश्वास है, मैं आग्रह करूँ तो यहाँ अमीरों के बँगले न बनवाकर ग़रीबों के घर बनवा देंगे; लेकिन हमारा उद्देश्य यह नहीं है। हमारी लड़ाई इस बात पर है कि जिस नगर में आधे से ज़्यादा आबादी गन्दे बिलों में रह रही हो, उसे कोई अधिकार नहीं है कि महलों और बँगलों के लिए ज़मीन बेचे। आपने देखा था, यहाँ कई हरे-भरे गाँव थे। म्य़ुनिसिपैलिटी ने नगर-निर्माण-संघ बनाया। गाँव के किसानों की ज़मीन कौड़ियों के दाम छीन ली गयी, और आज वही ज़मीन अशर्फियों के दाम बिक रही है; इसलिए कि बड़े आदमियों के बँगले बनें। हम अपने नगर के विधाताओं से पूछते हैं, क्या अमीरों ही के ज़ान होती है? ग़रीबों के जान नहीं होती? अमीरों को ही तन्दुरुस्त रहना चाहिए? ग़रीबों को तन्दुरुस्ती की ज़रूरत नहीं? अब जनता इस तरह मरने को तैयार नहीं है। अगर मरना ही है, तो इस मैदान में खुले आकाश के नीचे, चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में मरना बिलों में मरने से कहीं अच्छा है; लेकिन पहले हमें नगर विधाताओं से एक बार और पूछ लेना है कि वह अब भी हमारा निवेदन स्वीकार करेंगे, या नहीं? अब भी इस सिद्धान्त को मानेंगे, या नहीं? अगर उन्हें घमण्ड हो कि वे हथियार के ज़ोर से ग़रीबों को कुचलकर उनकी आवाज़ बन्द कर सकते हैं, तो उनकी भूल है। ग़रीबों का रक़्त जहाँ गिरता है, वहाँ हरेक बूँद की जगह एक-एक आदमी उत्पन्न हो जाता है। अगर इस वक़्त नगर–विधाताओं ने ग़रीबों की आवाज़ सुन ली; तो उन्हें सेंत का यश मिलेगा, क्योंकि ग़रीब बहुत दिनों तक ग़रीब नहीं रहेंगे और वह जमाना दूर नहीं है, जब ग़रीबों के हाथ में शक्ति होगी। विप्लव के जन्तु को छेड़-छेड़कर न जगाओ। उसे जितना भी छेड़ोगे, उतना ही झल्लायेगा और वह उठकर जम्हाई लेगा और ज़ोर से दहाड़ेगा, तो फिर तुम्हें भगाने की राह न मिलेगी। हमें बोर्ड के मेम्बरों को यही चेतावनी देनी है। इस वक़्त बहुत ही अच्छा अवसर है। सभी भाई म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर चलें। अब देर न करें, मेम्बर अपने-अपने घर चले जायेंगे। हड़ताल में उपद्रव का भय है, इसलिए हड़ताल उसी हालत में करनी चाहिए, जब और किसी तरह काम न निकल सके।’
नैना ने झण्डा उठा लिया और म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर की ओर चली। उसके पीछे बीस-पच्चीस हज़ार आदमियों का एक सागर-सा उमड़ता हुआ चला! और यह दल मेलों की भीड़ की तरह हज़ार आदमियों की असंख्य पंक्तियाँ गम्भीर भाव से एक विचार, एक उद्देश्य, एक धारणा की आन्तरिक शक्ति का अनुभव करती हुई चली जा रही थीं, और उनका ताँता न टूटता था, मानो भूगर्भ से निकलती चली जाती हों। सड़क के दोनों ओर छज्जों पर छतों पर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। सभी चकित थे। उफ़्फोह! कितने आदमी हैं! अभी चले ही आ रहे हैं।
तब नैना ने यह गीत शुरू कर दिया, जो इस समय बच्चे-बच्चे की ज़बान पर था–
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