उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
कई हज़ार गलों का संयुक्त, सजीव और व्यापक स्वर गगन में गूँज उठा–
नैना ने उस पद की पूर्ति की–‘क्यों हमको नीच समझते हो?’
कई हज़ार गलों ने साथ दिया–
‘क्यों हमको नीच समझते हो?’
नैना–‘क्यों अपने सच्चे दासों पर?’
जनता–क्यों अपने सच्चे दासों पर?’
नैना–‘इतना अन्याय बरतते हो!’
जनता–इतना अन्याय बरतते हो!’
उधर म्युनिसिपैलिटी बोर्ड में यही प्रश्न छिड़ा हुआ था।
हाफ़िज हलीम ने टेलीफ़ोन का चोंगा मेज़ पर रखते हुए कहा– ‘डॉक्टर शान्तिकुमार भी गिरफ़्तार हो गये।’
मि. सेन से निर्दयता से कहा–‘अब इस आन्दोलन की जड़ कट गयी। डॉक्टर साहब उसके प्राण थे।’
पं. ओंकारनाथ ने चुटकी ली–‘उस ब्लाक पर अब बँगले न बनेंगे। शगुन कह रहे हैं।’
सेन बाबू भी अपने लड़के के नाम से उस ब्लाक के एक भाग के खरीददार थे। जल उठे–‘अगर बोर्ड में अपने पास किए हुए प्रस्तावों पर स्थिर रहने की शक्ति नहीं है, तो उसे इस्तीफ़ा देकर अलग हो जाना चाहिए।’
मि. शफ़ीक ने, जो युनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और डॉक्टर शान्तिकुमार के मित्र थे, सेन को आड़े हाथों लिया– ‘बोर्ड के फ़ैसले खुदा के फैसले नहीं हैं। उस वक़्त बेशक बोर्ड ने उस ब्लाक को छोटे-छोटे प्लाटों में नीलाम करने का फैसला किया था, लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ? आप लोगों ने वह जितना इमारती सामान जमा किया, उसका कहीं पता नहीं है, हज़ार आदमी से ज़्यादा रोज़ रात को वहीं सोते हैं। मुझे यकीन है कि वहाँ काम करने के लिए एक मज़दूर भी राज़ी न होगा। मैं बोर्ड को ख़बरदार किये देता हूँ कि अगर अपनी पॉलिसी बदल न दी, तो शहर पर बहुत बड़ी आफ़त आ जायेगी। सेठ समरकान्त और शान्तिकुमार का शरीक होना बतला रहा है और उसे उखाड़ फेंकना अब क़रीब-क़रीब गैरमुमकिन है। बोर्ड को अपना फैसला रद्द करना पड़ेगा। चाहे अभी करें; या सौ-पचास जानों की नज़र लेकर करे। अब तक का तज़रबा तो यही कह रहा है कि बोर्ड की सख्तियों का बिलकुल असर नहीं हुआ; बल्कि उल्टा ही असर हुआ। अब जो हड़ताल होगी, वह इतनी ख़ौफनाक होगी कि उसके ख़ाल से रोंगटे खड़े होते हैं। बोर्ड अपने सिर पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी ले रहा है।’
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