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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


मि. हामीद अली कपड़े की मिल के मैनेजर थे। उनकी मिल घाटे पर चल रही थी। डरते थे, कहीं लम्बी हड़ताल हो गयी, तो बधिया ही बैठ जायेगी। थे तो बेहद मोटे; मगर बेहद मेहनती। बोले–‘हक़ तो तसलीम करने में बोर्ड को क्यों इतना पसोपेश हो रहा है, यह मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसलिए कि उसके ग़रूर को झुकना पड़ेगा। लेकिन हक़ के सामने झुकना कमज़ोरी नहीं, मज़बूती है। अगर आज इसी मसले पर बोर्ड का नया इन्तख़ाब हो, तो मैं दावे से कह सकता हूँ कि बोर्ड का यह रिज़ोल्यूशन हर्फ़े ग़लत की तरह मिट जायेगा। बीस-पच्चीस हज़ार ग़रीब आदमियों की बेहतरी और भलाई के लिए अगर बोर्ड के दस-बारह लाख का नुक़सान उठाना और दस-पाँच मेम्बरों की दिलशिकनी करनी पड़े तो उसे...’

फिर टेलीफ़ोन की घण्टी बजी। हाफ़िज हलीम के कान लगाकर सुना और बोले–‘पच्चीस हज़ार आदमियों की फ़ौज हमारे ऊपर धावा करने आ रही है। लाला समरकान्त की साहबजादी और सेठ धनीराम साहब की बहू उसकी लीडर हैं। डी.एस.पी. ने हमारी राय पूछी है और यह भी कहा है कि फ़ायर किये बग़ैर जुलूस पीछे हटने वाला नहीं। मैं इस मुआमले में बोर्ड की राय जानना चाहता हूँ। बेहतर है कि वोट ले लिये जायें। जाब्ते की पाबन्दियों का मौक़ा नहीं है; आप लोग हाथ उठायें–फ़ॉर?’

बारह हाथ उठे।

‘अगेन्स्ट?’

दस हाथ उठे। लाला धनीराम निउट्रल रहे।

‘तो बोर्ड की राय है कि जुलूस को रोका जाये, चाहे फ़ायर करना पड़े।’

सेन बोले–‘क्या अब कोई शक है?’

फिर टेलीफ़ोन की घण्टी बजी। हाफ़िज़जी ने कान लगाया। डी.एस.पी. कह रहा था–‘बड़ा ग़ज़ब हो गया। अभी लाला मनीराम ने अपनी बीवी को गोली मार दी।’

हाफ़िज़जी ने पूछा–‘क्या बात हुई?’

‘अभी कुछ मालूम नहीं। शायद मिस्टर मनीराम गुस्से में भरे हुए जुलूस के सामने आये और अपनी बीवी को वहाँ से हट जाने को कहा। लेडी ने इनकार किया। इस पर कुछ कहासुनी हुई। मिस्टर मनीराम के हाथ में पिस्तौल थी। फ़ौरन शूट कर दिया। अगर वह भाग न जायें, तो धज्जियाँ उड़ जायँ। जुलूस अपने लीडर की लाश उठाये फिर म्युनिसिपैलिटी बोर्ड की तरफ़ जा रहा है।’

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