उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
हाफ़िज़जी ने मेम्बरों को यह ख़बर सुनाई, तो सारे बोर्ड में सनसनी दौड़ गयी। मानो किसी जादू से सारी सभा पाषाण हो गयी हो।
सहसा लाला धनीराम खड़े होकर भर्राई हुई आवाज़ में बोले–‘सज्जनों, जिस भवन को एक-एक कंकण जोड़-जोड़कर पचास साल से बना रहा था, वह आज एक क्षण में ढह गया, ऐसा ढह गया कि उसकी नींव का पता नहीं। अच्छे-से-अच्छे मसाले दिये, अच्छे-से-अच्छे कारीगर लगाये, अच्छे-से-अच्छे नक़शे बनवाये, भवन तैयार हो गया था, केवल कलस बाक़ी था। उसी वक़्त एक तूफ़ान आता है और उस विशाल भवन को इस तरह उड़ा ले जाता है, मानो फूस का ढेर हो। मालूम हुआ कि वह भवन केवल मेरे जीवन का एक स्वप्न था। सुनहरा स्वप्न कहिए, चाहे काला स्वप्न कहिए; पर था वह स्वप्न ही। वह स्वप्न भंग हो गया–भंग हो गया!’
यह कहते हुए वह द्वार की ओर चले।
हाफ़िज़ हलीम ने शोक के साथ कहा–‘सेठजी, मुझे और मैं उम्मीद करता हूँ कि बोर्ड की आपसे कमाल हमदर्दी है।’
सेठजी ने पीछे फिरकर कहा– ‘अगर बोर्ड का मेरे साथ हमदर्दी है, तो इसी वक़्त मुझे यह अख़्तियार दीजिए कि जाकर लोगों से कह दूँ, बोर्ड ने तुम्हें वह ज़मीन दे दी; वरना यह आग कितने ही घरों को भस्म कर देगी, कितने ही के स्वप्नों को भंग कर देगी।’
बोर्ड के कई मेम्बर बोले–‘चलिए, हम लोग भी आपके साथ चलते हैं।’
बोर्ड के बीस सभासद उठ खड़े हुए। सेन ने देखा कि यहाँ कुल चार आदमी रहे जाते हैं, तो वह भी उठ पड़े, और उनके साथ उनके तीनों मित्र भी उठे। अन्त में हाफ़िज हलीम का नम्बर आया।
जुलूस उधर से नैना की अर्थी लिए चला आ रहा है। एक शहर में इतने आदमी कहाँ से आ गये? मीलों लम्बी घनी क़तार है; शान्त, संगठित जो मर मिटाना चाहती है। नैना के बलिदान ने उन्हें अजेय, अभेद्य बना दिया है।
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