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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा के मुख पर भी कुछ कम गर्व और आनन्द की झलक न थी। वहाँ जो कठोरता और गरिमा छाई रहती थी, उसकी जगह जैसे माधुर्य खिल उठा है। आज उसे कोई ऐसी विभूति मिल गयी है, जिसकी कामना अप्रत्यक्ष होकर भी उसके जीवन में एक रिक्ति, एक अपूर्णता की सूचना देती रहती थी। आज उस रिक्ति में जैसे मधु भर गया है, वह अपूर्णता जैसे पल्लवित हो गयी है। आज उसने पुरुष के प्रेम में अपने नारीत्व को पाया है। उसके हृदय से लिपटकर अपने को खो देने के लिए आज उसके प्राण कितने व्याकुल हो रहे हैं। आज उसकी तपस्या मानो फलीभूत हो गयी है।

रही मुन्नी, वह अलग विरक्त भाव से सिर झुकाये खड़ी थी। उसके जीवन की सूनी मुँडेर पर एक पक्षी न जाने कहाँ से उड़ता हुआ आकर बैठ गया था। उसे देखकर वह अंचल में दाना भरे आ! आ! कहती, पाँव दबाती हुई उसे पकड़ लेने के लिए लपककर चली। उसने दाना ज़मीन पर बिखेर दिया। पक्षी ने दाना चुगा, उसे विश्वास-भरी आँखों से देखा, मानो पूछ रहा हो–तुम मुझे स्नेह से पालोगी या चार दिन मन बहलाकर फिर पर काटकर निराधार छोड़ दोगी; लेकिन उसने ज्योंही पक्षी को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, पक्षी उड़ गया और तब एक दूर की एक डाली पर बैठा हुआ उसे कपट-भरी आँखों से देख रहा था, मानो कह रहा हो–मैं आकाशगामी हूँ, तुम्हारे पिंजरे में मेरे लिए सूखे दाने और कुल्हिया में पानी के सिवा और क्या था!

सलीम ने नाँद में चूना डाल दिया। सकीना और मुन्नी ने एक-एक डोल उठा लिया और पानी खींचने चलीं।

अमर ने कहा–‘बाल्टी मुझे दे दो, मैं भरे लाता हूँ।’

मुन्नी बोली– ‘तुम पानी भरोगे और हम बैठे देखेंगे?’

अमर ने हँसकर कहा–‘और क्या तुम पानी भरोगी, और मैं तमाशा देखूँगा?’

मुन्नी बाल्टी लेकर भागी। सकीना भी उसके पीछे दौड़ी।

रेणुका जमाई के लिए कुछ जलपान बना लाने चली गयी थी। यहाँ जेल से बेचारे को रोटी-दाल के सिवा और क्या मिलता है। वह चाहती थी, सैकड़ों चीजें बनाकर विधिपूर्वक जमाई को खिलाये। जेल में भी रेणुका को घर के सभी सुख प्राप्त थे। लेड़ी जेलर, चौकीदारिन और अन्य कर्मचारी सभी उनके गुलाम थे। पठानिन खड़ी-खड़ी थक जाने के कारण जाकर लेट रही थी। मुन्नी और सकीना पानी भरने चली गयी। सलीम को भी सकीना से बहुत-सी बातें करनी थीं। वह भी बम्बे की तरफ़ चला। यहाँ केवल अमर और सुखदा रह गये।

अमर ने सुखदा के समीप आकर बालक को गले लगाते हुए कहा–‘यह जेल तो मेरे लिए स्वर्ग हो गया सुखदा! जितनी तपस्या की थी, उससे कहीं बढ़कर वरदान पाया। अगर हृदय दिखाना सम्भव होता, तो दिखाता कि मुझे तुम्हारी कितनी याद आयी थी। बार-बार अपनी गलतियों पर पछताया था।’

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