उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
बालक ने अमरकान्त का वह क़दियों का बाना देखा, तो चिल्लाकार रेणुका से चिपट गया। फिर उसकी गोद में मुँह छिपाये कनखियों से उसे देखने लगा, मानो मेल तो करना चाहता है, पर भय यह है कि कहीं यह सिपाही उसे पकड़ न लें, क्योंकि इस भेष आदमी को अपना बाबूजी समझने में उसके मन को सन्देह हो रहा था।
सुखदा को बालक पर क्रोध आया। कितना डरपोक है, मानो इसे वह खा जाते। उसकी इच्छा हो रही थी कि यह भीड़ टल जाये, तो एकान्त में अमर से मन की दो-चार बातें कर ले। फिर न जाने कब भेंट हो?
अमर ने सुखदा की ओर ताकते हुए कहा–‘आप लोग इस मैदान में भी हमसे बाज़ी ले गयीं। आप लोगों ने जिस काम का बीड़ा उठाया, उसे पूरा कर दिखाया। हम तो अभी जहाँ खड़े थे, वहीं खड़े हैं। सफलता के दर्शन होंगे भी या नहीं, कौन जाने? जो थोड़ा बहुत आन्दोलन यहाँ हुआ है, उसका गौरव भी मुन्नी बहन और सकीना बहन को है। उन दोनों बहनों के हृदय में देश के लिए जो अनुराग और कर्त्तव्य के लिए जो उत्सर्ग है, उसने हमारा मस्तक ऊंचा कर दिय। सुखदा ने जो कुछ किया, वह तो आप लोग मुझसे ज़्यादा जानती हैं। आज लगभग तीन साल हुए, मैं विद्रोह करके घर से भागा था। मैं समझता था, इनके साथ मेरा जीवन नष्ट हो जायेगा; पर आज मैं इनके चरणों की थूल माथे पर लगाकर अपने को धन्य समझूँगा। मैं सभी माताओं और बहनों के सामने उनसे क्षमा माँगता हूँ।’
सलीम ने मुस्कुराकर कहा–‘यों ज़बानी नहीं, कान पकड़कर एक लाख मरतबा उठो–बैठो।’
अमर ने उसे कनखियों में देखा और बोला–‘अब तुम मैजिस्ट्रेट नहीं हो भाई, भूलो मत। ऐसी सजाएँ अब नहीं दे सकते!’
सलीम ने फिर शरारत की। सकीन से बोला–‘तुम चुपचाप क्यों खड़ी हो सकीना?’ तुम्हें भी तो इनसे कुछ कहना है, या मौक़ा तलाश कर रही हो?’
फिर अमर से बोला–‘आप अपने क़ौल से फिर नहीं सकते जनाब! जो वादे किये हैं, वह पूरे करने पड़ेंगे।’
सकीना का चेहरा मारे शर्म के लाल हो गया। जी चाहता था, जाकर सलीम की चुटकी काट ले! उसके मुख पर आनन्द और विजय का ऐसा रंग था; जो छिपाये न छिपता था। मानो उसके मुख पर बहुत दिनों से जो क़लिमा लगी हुई थी, वह आज धुल गयी हो, और संसार के सामने अपनी निष्कलंकता का ढिंढोरा पीटना चाहती हो। उसे पठानिन की ऐसी आँखों देखा, जो तिरस्कार भरे शब्दों में कह रही थी–‘अब तुम्हें मालूम हुआ, तुमने कितना घोर अनर्थ किया था! अपनी आँखों में वह कभी इतनी ऊँची न उठी थी। जीवन में उसे इतनी श्रद्धा और इतना सम्मान मिलेगा, इसकी तो उसने कल्पना न की थी।’
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