उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
रेणुका ने इस भाव का तिरस्कार करके कहा–‘नहीं भैया, गोली क्या चलती, किसी से लड़ाई थी? जिस वक़्त वह मैदान से जुलूस के साथ म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर की ओर चली, तो एक लाख आदमी से कम न थे। उसी वक़्त मनीराम ने आकर उस पर गोली चला दी। वहीं गिर पड़ी। कुछ मुँह से कहने न पायी। रात-दिन भैया ही में उसके प्राण लगे रहते थे। वह तो स्वर्ग गयी; हाँ हम लोगों को रोने के लिए छोड़ गयी।’
अमर को ज्यों-ज्यों नैना के जीवन की बातें याद आती थीं, उसके मन में जैसे विषाद का एक नया सोता खुला जाता था। हाय! उस देवी के साथ उसने एक भी कर्त्तव्य का पालन न किया। यह सोच-सोचकर उसका जी कचोट उठता था। वह अगर घर छोड़कर न भागा होता, तो लालाजी क्यों उसे लोभी मनीराम के गले बाँध देते! और क्यों उसका यह करुणाजनक अन्त होता!
लेकिन सहसा इस शोक-सागर में डूबते हुए उसे ईश्वरीय विधान की नौका–सी मिल गयी। ईश्वरीय प्रेरणा के बिना किसी में सेवा का अनुराग कैसा आ सकता है? जीवन का इससे शुभ उपयोग और क्या हो सकता है? गृहस्थी के संचय में, स्वार्थ की उपासना में, तो सारी दुनिया मरती है। परोपकार के लिए मरने का सौभाग्य तो संस्कार वालों को ही प्राप्त होता है। अमर की शोकमग्न आत्मा ने अपने चारों ओर ईश्वरीय दया का चमत्कार देखा– ‘व्यापक, असीम, अनन्त।’
सलीम ने फिर–‘बेचारे लालाजी को तो बड़ा रंज होगा?’
रेणुका ने गर्व से कहा–‘वह तो पहले ही गिरफ़्तार हो चुके थे बेटा, और शान्तिकुमार भी।’
अमर को जान पड़ा, उसकी आँखों की ज्योति दुगुनी हो गयी है, उसकी भुजाओं में चौगुना बल आ गया है, उसने वहीं ईश्वर के चरणों में सिर झुका दिया और अब उसकी आँखों से जो मोती गिरे, वह विषाद के नहीं उल्लास और गर्व के थे। उसके हृदय में ईश्वर की ऐसी निष्ठा का उदय हुआ, मानो वह कुछ नहीं है, जो कुछ ईश्वर की इच्छा है; जो कुछ करता है, वही करता है; वही मंगल-मूल और सिद्धियों का दाता है। सकीना और मुन्नी दोनों उसके सामने खड़ी थीं। उनकी छवि को देखकर उसके मन में वासना की जो आँधी–सी चलने लगती थी, उसी छवि में आज उसे निर्मल प्रेम पाये, जो आत्मा के विकारों को शान्त कर देता है, उसे सत्य के प्रकाश से भर देता है। उसमें लालसा की जगह उत्सर्ग, भोग की जगह तप का संस्कार भर देता है। उसे ऐसा आभास हुआ, मानो वह उपासक है और ये रमणियाँ उसकी उपास्य देवियाँ हैं। उनके पद-रज को माथे पर लगाना ही मानो उसके जीवन की सार्थकता है।
रेणुका ने बालक को सकीना की गोद से लेकर अमर की ओर उठाते हुए कहा–‘यही तेरे बाबूजी हैं बेटा, इनके पास जा।’
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