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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


एक तरफ़ से सकीना और सुखदा, दूसरी ओर से पठानिन और रेणुका आ पहुँची; पर किसी के मुँह से बात न निकलती थी। सबों की आँखें सज़ल थीं और गले भरे हुए। चली थीं हर्ष के आवेश में पर हर पग के साथ मानो जल गहरा होते-होते अन्त को सिरों पर आ पहुँचा।

अमर इन देवियों को देखकर विस्मय–भरे गर्व से फूल उठा। उनके सामने वह कितना तुच्छ था, कितना नगण्य? किन शब्दों में उनकी स्तुति करे, उनकी भेंट क्या चढ़ाये? उनके आशावादी नेत्रों में भी राष्ट्र का भविष्य कभी इतना उज्जवल न था। उसके सिर से पाँव तक स्वेदशाभिमान की एक बिजली-सी दौड़ गयी। भक्ति के आँसू आँखों में छलक आये।

औरों की जेल–यात्रा का समाचार तो वह सुन चुका था; पर रेणुका को वहाँ देखकर वह जैसे उन्मत्त होकर उनके चरणों पर गिर पड़ा।

रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा–‘आज चलते-चलते तुमसे ख़ूब भेंट हो गयी बेटा। ईश्वर तुम्हारी मनोकामना सफल करे। मुझे तो आये आज पाँचवाँ ही दिन है, पर हमारी रिहाई का हुक्म आ गया। नैना ने हमें मुक्त कर दिया।’

अमर ने धड़कते हुए हृदय से कहा–‘तो क्या वह भी यहाँ आयी है? उसके घरवाले तो बहुत बिगड़े होंगे?’

सभी देवियाँ रो पड़ीं। इस प्रश्न ने जैसे उनके हृदय को मसोस लिया। अमर ने चकित नेत्रों से हरेक के मुँह की ओर देखा। एक अनिष्ट-शंका से उसकी सारी देह थरथरा उठी। इन चेहरों पर विजय की दीप्ति नहीं, शोक की छाया अंकित थी। अधीर होकर बोला–‘कहाँ है नैना, यहाँ क्यों नहीं आती? उसका जी अच्छा नहीं है क्या?’

रेणुका ने हृदय को सँभालकर कहा–‘नैना को आकर चौक में देखना बेटा, जहाँ उसकी मूर्ति स्थापित होगी। नैना आज तुम्हारे नगर की रानी है। हरेक हृदय में तुम उसे श्रद्धा के सिंहासन पर बैठी पाओगे।’

अमर पर वज्रपात हो गया। वह वहीं भूमि पर बैठ गया और दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। उसे जान पड़ा, अब संसार में उसका रहना वृथा है। नैना स्वर्ग की विभूतियों से जगमगाती, मानो उसे खड़ी बुला रही थी।

रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा–‘बेटा उसके लिए क्यों रोते हो, वह मरी नहीं, अमर हो गयी। उसी के प्राणों से इस यज्ञ की पूर्णाहुति हुई है!’

सलीम ने गला साफ़ करके पूछा–‘बात क्या हुई? क्यों कोई गोली लग गयी?’

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