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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सकीना की मुद्रा गम्भीर हो गयी। नहीं, वह भयभीत हो गयी। जैसे कोई शत्रु उसे दम लेकर उसके गले में फन्दा डालने जा रहे हो। उसने मानो गले को बचाकर कहा–‘तुम उनके साथ फिर अन्याय कर रही हो बहनजी। वह उन आदमियों में नहीं है, जो दुनिया के डर से कोई काम करें। उन्होंने ख़ुद सलीम से मेरी ख़त-किताबत करवाई। मैं उनकी मंशा समझ गयी। मुझे मालूम हो गया, तुमने अपने रूठे देवता को मना लिया। मैं दिल में काँपी जा रही थी कि मुझ–जैसी गँवारिन उन्हें कैसे खुश रख सकेगी? मेरी हालत उस कंगले की–सी हो रही थी; जो खजाना पाकर बौखला गया हो कि अपनी झोंपड़ी में उसे कहाँ रखे, कैसे उसकी हिफ़ाजत करे? उनकी यह मंशा समझकर मेरे दिल का बोझ हलका हो गया। देवता तो पूजा करने की चीज़ है वह हमारे घर में आ जाये, तो उसे कहाँ बैठायें, कहाँ सुलायें, क्या खिलायें? मन्दिर में जाकर हम एक एक छन के लिए कितने दीनदार, कितने परहेज़गार बन जाते हैं। हमारे घर में आकर यदि देवता हमारा असली रूप देखे, तो शायद हमसे नफ़रत करने लगे। सलीम को मैं सँभाल सकती हूँ। वह इसी दुनिया के आदमी हैं, और मैं उन्हें समझ सकती हूँ।’

उसी वक़्त जनाने वार्ड के द्वार ख़ुले और तीन क़ैदी अन्दर दाखिल हुए। तीनों घुटनों तक जाँघिये और आधी बाँह के ऊँचे कुरते पहने हुए थे। एक के कन्धे पर बाँस की सीढ़ी थी, एक के सिर पर चूने का बोरा। तीसरा चूनें की हाँडियाँ, कूँची और बाल्टियाँ लिए हुए था। आज से ज़नाने जेल की पुताई होगी। सालाना सफ़ाई और मरम्मत के दिन आ गये हैं।’

सकीना ने क़ैदियों को देखते ही उछलकर कहा–‘वह तो जैसे बाबूजी हैं, डोल और रस्सी लिए हुए, सलीम उठाए हुए हैं।’

यह कहते हुए उसने बालक को गोद में उठा लिया और उसे भेंच-भेंचकर प्यार करती हुई द्वार की ओर लपकी। बार-बार उसका मुँह चूमती और कहती जाती थी–‘चलो, तुम्हारे बाबूजी आये हैं।’

सुखदा भी आ रही थी, पर मन्द गति से। उसे रोना आ रहा था। आज इतने दिनों के बाद मुलाक़ात हुई तो इस दशा में।

सहसा मुन्नी एक ओर से दौड़ती हुई आयी और अमर के हाथ से डोल और रस्सी छीनती हुई बोली–‘अरे! यह तुम्हारे क्या हाल हैं लाला, आधे भी नहीं रहे! चलो आराम से बैठो, मैं पानी खींचे देती हूँ।’

अमर ने डोल को मजबूत पकड़कर कहा–‘नहीं-नहीं तुमसे न बनेगा। छोड़ दो डोल। जेलर देखेगा, तो मेरे ऊपर डाँट पड़ेगी।’

मुन्नी ने डोल छीनकर कहा–‘मैं जेलर को जवाब दे लूँगी। ऐसी ही थे तुम वहीं?’

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