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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सकीना कल सुबह आयी थी; पर अब तक सुखदा और उसमें मामूली शिष्टाचार के सिवा और कोई बात न हुई थी। सकीना उससे बातें करते झेंपती थी कि कहीं वह गुप्त प्रसंग न उठ खड़ा हो। और सुखदा इस तरह उससे आँखें चुराती थी, मानो अभी उसकी तपस्या उस कलंक को धोने के लिए काफ़ी नहीं हुई।

सकीना की सलाह में जो सहृदयता भरी हुई थी, उसने सुखदा को पराभूत कर दिया। बोली–‘हाँ, विचार तो है। तुम्हारा भी कोई सन्देशा कहना है?’

सकीना ने आँखों में आँसू भरकर कहा–‘मैं क्या सन्देशा कहूँगी बहूजी? आप इतना ही कह दीजियेगा– नैना देवी चली गयीं, पर जब तक सकीना ज़िन्दा है, आप उसे नैना ही समझते रहिए।’

सुखदा ने निर्दय मुस्कान के साथ कहा–‘उनका तुमसे दूसरा रिश्ता हो चुका है।’

सकीना ने जैसे इस वार को काटा–‘तब उन्हें औरत की ज़रूरत थी, आज बहन की ज़रूरत है।’

सुखदा तीव्र स्वर में बोली–‘मैं तो तब भी ज़िन्दा थी।’

सकीना ने देखा, ‘जिस अवसर से वह काँपती रहती थी, वह सिर पर आ ही पहुँचा। अब उसे अपनी अपनी सफ़ाई देने के सिवा और कोई और कोई मार्ग न था।

उसने पूछा–‘मैं कुछ कहूँ, बुरा तो न मानियेगा?’

‘बिलकुल नहीं।’

‘तो सुनिए–तब आपने उन्हें घर से निकाल दिया था। आप पूरब जाती थीं, वह पच्छिम जाते थे। अब आप और वह एक दिल हैं, एक जान हैं। जिन बातों की उनकी निगाह में सबसे ज़्यादा क़द्र थी, वह आपने पूरी कर दिखायी। वह जो आपको पा जायें, तो आपके क़दमों का बोसा ले लें।’

सुखदा को इस कथन में वही आनन्द आया, जो एक कवि को दूसरे कवि की दाद पाकर आता है, उसके दिल में जो संशय था वह जैसे आप-ही-आप उसके हृदय से टपक पड़ा–यह तो तुम्हारा ख़्याल है सकीना। उसके दिल में क्या, यह कौन जानता है? मरदों पर विश्वास करना मैंने छोड़ दिया। अब वह चाहे मेरी कुछ इज़्ज़त करने लगे–इज़्ज़त तो तब भी क़म न करते थे, लेकिन तुम्हें वह दिल से निकाल सकते हैं, इसमें मुझे शक है। तुम्हारी शादी मियाँ सलीम से हो जायेगी, लेकिन दिल में वह तुम्हारी उपासना करते रहेंगे।’

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