उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
हाफ़िज़जी के चुप होते ही, ‘नैना देवी के जय’ की ऐसी श्रद्धा में डूबी हुई ध्वनि उठी कि आकाश तक हिल उठा। फिर हाफ़िज हलीम की भी जय-जयकार हुई और जुलूस गंगा की तरफ़ रवाना हो गया। बोर्ड के सभी मेम्बर जुलूस के साथ थे। सिर्फ़ हाफ़िज हलीम म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर में जा बैठे और पुलिस अधिकारियों से क़ैदियों की रिहाई के लिए परामर्श करने लगे।
जिस संग्राम को छः महीने पहले एक देवी ने आरम्भ किया था, उसे आज एक दूसरी देवी ने अपने प्राणों की बलि देकर अन्त कर दिया।
१०
इधर सकीना जनाने जेल में पहुँची, उधर सुखदा, पठानिन और रेणुका की रिहाई का परवाना भी आ गया। उसके साथ ही नैना की हत्या का संवाद भी पहुँचा। सुखदा सिर झुकाये मूर्तिवत बैठी रह गयी, मानो अचेत हो गयी हो। कितनी महँगी विजय थी!
रेणुका ने लम्बी साँस लेकर कहा–‘दुनिया में ऐसे-ऐसे आदमी भी पड़े हुए हैं, जो स्वार्थ के लिए अपनी स्त्री की हत्या कर सकते हैं।’
सुखदा आवेश में आकर बोली–‘नैना की उसने हत्या नहीं की अम्माँ, यह विजय उस देवी के प्राणों का वरदान है।’
पठानिन ने आँसू पोंछते हुए कहा–‘मुझे तो यही रोना आता है कि भैया को कितना दुःख होगा? भाई-बहन में इतनी मोहब्बत मैंने नहीं देखी।’
जेलर ने आकर सूचना दी, ‘आप लोग तैयार हो जायें। शाम की गाड़ी से सुखदा, रेणुका और पठानिन, इन महिलाओं को जाना है। देखिए, हम लोगों से जो ख़ता हुई हो, उसे मुआफ़ कीजिएगा।’
किसी ने इसका जवाब न दिया, मानो किसी ने सुना ही नहीं। घर जाने में अब अब आनन्द न था। विजय का आनन्द भी इस शोक में डूब गया था।
सकीना ने सुखदा के कान में कहा–‘जाने के पहले बाबूजी से मिल लीजियेगा। यह ख़बर सुनकर न जाने दुश्मनों पर क्या गुज़रे? मुझे तो डर लग रहा है।’
बालक रेणुकान्त सामने सहन में कीचड़ से फिसलकर गिर गया था और पैरों से ज़मीन को इस शरारत की सज़ा दे रहा था। साथ-ही-साथ रोता जाता था। सकीना और सुखदा दोनों उसे उठाने दौड़ीं और वृक्ष के नीचे खड़ी होकर उसे चुप कराने लगीं।
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