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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


वह इन्हीं उत्तेजना से भरे हुए विचारों में डूबा बैठा था कि नैना ने आकर कहा–‘दादा बिगड़ रहे थे भैया जी?’

अमरकान्त के एकान्त जीवन में नैना ही स्नेह और सान्त्वना की वस्तु थी। अपनी सुख-दुःख, अपनी विजय और पराजय, अपने मंसूबे और इरादे वह उसी से कहा करता था। यद्यपि सुखदा से अब उसे उतना विराग न था, न ही उससे उसे प्रेम भी हो गया था; पर नैना अब भी उससे निकटतर थी। सुखदा और नैना दोनों उसके अन्तस्थल के दो कूल थे। सुखदा ऊँची, दुर्गम और विशाल थी। लहरें उसके चरणों ही तक पहुँचकर रह जाती थीं। नैना समतल, सुलभ और समीप। वायु का थोड़ा वेग पाकर भी लहरें उसके मर्मस्थल तक जा पहुँचती थीं।

अमर अपनी मनोव्यथा को मन्द मुस्कान की आड़ में छिपाता हुआ बोला–‘कोई नयी बात नहीं थी नैना। वही पुराना पचड़ा था। तुम्हारी भाभी तो नीचे नहीं थीं?’

‘अभी तक तो यहीं थीं। ज़रा देर हुई ऊपर चली गयीं।’

‘तो आज उधर से भी शस्त्र-प्रहार होंगे। दादा ने तो आज मुझसे साफ़ कर दिया, तुम अपने लिए कोई राह निकालो, और मैं भी सोचता हूँ, मुझे अब कुछ-न-कुछ करना चाहिए। यह रोज़-रोज़ की फटकार नहीं सही जाती। मैं कोई बुराई करूँ, तो वह मुझे दस जूते भी जमा दें चूँ न करूँगा; लेकिन अधर्म पर मुझसे न चला जाएगा।’

नैना ने इस वक़्त मीठी पकौड़ियाँ, नमकीन पकौड़ियाँ, खट्टी पकौड़ियाँ और न जाने क्या-क्या पका रखे थे। उसका मन उन पदार्थों को खिलाने और खाने के आनन्द में बसा हुआ था। यह धर्म-अधर्म के झगड़े उसे व्यर्थ से जान पड़े। बोली–‘पहले चलकर पकौड़ियाँ खा लो, फिर इस विषय पर सलाह होगी।’

अमर ने वितृष्णा के भाव से कहा–‘ब्यालु करने की मेरी इच्छा नहीं है। लात की मारी रोटियाँ कण्ठ के नीचे न उतरेंगी। दादा ने आज फैसला कर दिया।’

‘अब तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती। आज की-सी मज़ेदार पकौड़ियाँ तुमने कभी न खायी होंगी। तुम न खाओगे, तो मैं न खाऊँगी।’

नैना की इस दलील ने उसके इनकार को कई कदम पीछे ढकेल दिया–‘तू मुझे बहुत दिक करती है नैना, सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है।’

‘चलकर थाल पर बैठा तो, पकौड़ियाँ देखते ही टूट न पड़ो, तो कहना।’

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