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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर ने उदासीन भाव से सिर हिलाकर कहा–‘अगर रोज़गार का यह हाल है तो मैं रोज़गार करूँगा ही नहीं।’

‘तो घर-गिरस्ती कैसे चलेगी?कूएँ में पानी की आमद न हो, तो कै दिन पानी निकले?’

अमरकान्त ने इस विवाद का अन्त करने के इरादे से कहा–‘मैं भूखों मर जाऊँगा; पर आत्मा का गला न घोटूँगा।’

‘तो क्या मजूरी करोगे?’

‘मजूरी करने में कोई शर्म नहीं है।’

समरकान्त ने हथौड़े से काम चलते न देखकर घन चलाया–‘शर्म चाहे न हो; पर तुम कर न सकोगे, कहो लिख दूँ। मुँह से बक देना सरल है, कर दिखाना कठिन होता है। चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब चार गंडे पैसे मिलते हैं। मजूरी करेंगे! एक घड़ा पानी तो अपने हाथों से खींचा नहीं जाता, चार पैसे की भाजी लेनी होती है, तो नौकर लेकर चलते हैं, यह मजूरी करेंगे। अपने भाग्य को सराहो कि मैंने कमाकर रख दिया है। तुम्हारा किया कुछ न होगा। तुम्हारी इन बातों में ऐसा जी जलता है कि सारी जायदाद कृष्णार्पण कर दूँ, फिर देखूँ तुम्हारी आत्मा किधर जाती है।’

अमरकान्त पर उनकी इस चोट का भी कोई असर न हुआ–‘आप ख़ुशी से अपनी जायदाद कृष्णार्पण कर दें। मेरे लिए रत्ती-भर भी चिन्ता न करें। जिस दिन आप यह पुनीत कार्य करेंगे, उस दिन मेरा सौभाग्य-सूर्य उदय होगा। मैं इस मोह से मुक्त होकर स्वाधीन हो जाऊँगा। जब तक मैं इस बन्धन में पड़ा रहूँगा। मेरी आत्मा का विकास न होगा।’

समरकान्त के पास अब कोई शस्त्र न था। एक क्षण के लिए क्रोध ने उनकी व्यवहार-बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। बोले–‘तो क्यों इस बन्धन में पड़े हो? क्यों अपनी आत्म का विकास नहीं करते? महात्मा हो जाओ। कुछ करके दिखाओ तो! जिस चीज़ की तुम क़दर नहीं कर सकते, वह मैं तुम्हारे गले नहीं मढ़ना चाहता।’

यह कहते हुए वह ठाकुरद्वारे में चले गये, जहाँ इस समय आरती का घंटा बज रहा था। अमर इस चुनौती का जवाब न दे सका। वे शब्द जो बाहर न निकल सके, उसके हृदय में फोड़े की तरह टीसने लगे–मुझ पर अपनी सम्पत्ति की धौंस जमाने चले हैं? चोरी का माल बेचकर, जुआरियों को चार आने रुपये ब्याज पर रुपये देकर, ग़रीब मजूरों और किसानों को ठगकर तो रुपये जोड़े हैं, उस पर आपको इतना अभिमान है। ईश्वर न करे कि मैं उस धन का गुलाम बनूँ।

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