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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमरकान्त धर्म की इस व्याख्या पर मन-ही-मन हँसकर बोला–‘आप गंगा-स्नान पूजा-पाठ को मुख्य धर्म समझते हैं, मैं सच्चाई, सेवा और परोपकार को मुख्य धर्म समझता हूँ। स्नान-ध्यान, पूजा-व्रत धर्म के साधन मात्र हैं, धर्म नहीं।’

समरकान्त ने मुँह चिढ़ाकर कहा–‘ठीक कहते हो, बहुत ठीक; अब संसार तुम्हीं को धर्म का आचार्य मानेगा। अगर तुम्हारे धर्म-मार्ग पर चलता, तो आज मैं भी लँगोटी लगाये घूमता होता, तुम भी यों महल में बैठकर मौज न करते होते। चार अक्षर अंग्रेजी पढ़ ली न, यह उसी की विभूति है; लेकिन मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जो अंग्रेजी के विद्वान होकर, अपना धर्म-कर्म निभाए जाते हैं। साफ़ डेढ़ सौ पानी में डाल दिए।’

अमरकान्त ने अधीर होकर कहा–‘आप बार-बार उसकी चर्चा क्यों करते हैं? मैं चोरी और डाके के माल से रोज़गार न करूँगा, चाहे आप खुश हों या नाराज। मुझे ऐसे रोज़गार से घृणा होती है।’

‘तो मेरे काम में वैसी आत्मा की ज़रूरत नहीं। मैं ऐसी आत्मा चाहता हूँ, जो अवसर देखकर, हानि-लाभ का विचार करके काम करे।’

‘धर्म को मैं हानि-लाभ की तराजू पर नहीं तौल सकता।’

इस वज्र-मूर्खता की दवा, चाँटे के सिवा और कुछ न थी। लालाजी ख़ून का घूँट पीकर रह गये। अमर हृष्ट-पुष्ट होता तो आज उसे धर्म की निन्दा करने का मज़ा मिल जाता। बोले– ‘बस तुम्हीं तो संसार में एक धर्म के ठेकेदार रह गये हो, और सब तो अधर्मी हैं। वही माल जो तुमने अपने घमंड में लौटा दिया, तुम्हारे किसी दूसरे भाई ने दो-चार रुपये कम-बेश देकर ले लिया होगा। उसने तो रुपये कमाए, तुम नींबू-नोन चाटकर रह गये। डेढ़ सौ रुपये तब मिलते हैं, जब डेढ़ सौ थान कपड़ा या डेढ़ सौ बोरे चीनी बिक जाएँ। मुँह का कौर नहीं है। अभी कमाना नहीं पड़ा है, दूसरों की कमाई से चैन उड़ा रहे हो, तभी ऐसी बातें सूझती हैं। जब अपने सिर पड़ेगी, तब आँखें खुलेंगी।’

अमर अब भी क़ायल न हुआ। बोला–‘मैं कभी यह रोज़गार न करूँगा।’

लालाजी को लड़के की मूर्खता पर क्रोध की जगह क्रोध-मिश्रित दया आ गयी। बोले–‘तो फिर कौन रोज़गार करोगे? कौन रोज़गार है, जिसमें तुम्हारी आत्मा की हत्या न हो; लेन-देन, सूद-बट्टा, अनाज-कपड़ा, तेल-घी; सभी रोज़गारों में दाँव-घात है। जो दाँव-घात समझता है, वह नफा उड़ाता है, जो नहीं समझता, उसका दिवाला पिट जाता है। मुझे कोई ऐसा रोज़गार बता दो, जिसमें झूठ न बोलना पड़े, बेईमानी न करनी पड़े। इतने बड़े-बड़े हाकिम हैं, बताओ कौन घूस नहीं लेता? एक सीधी-सी नक़ल लेने जाओ, तो एक रुपया लग जाता है। बिना तहरीर लिए थानेदार रपट तक नहीं लिखता। कौन वकील है जो झूठे गवाह नहीं बनाता? लीडरों ही में कौन है, जो चन्दे के रुपये में नोच-खसोट न करता हो? माया पर तो संसार की रचना हुई है; इससे कोई कैसे बच सकता है?’

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