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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा सतेज होकर बोली–‘डरते होगे कि यह अपने भाग्य को रोयेगी, क्यों?’

अमरकान्त झेंपकर बोला–‘यह बात नहीं है सुखदा!’

‘क्यों झूठ बोलते हो! तुम्हारे मन में यही भाव है और इससे बड़ा अन्याय तुम मेरे साथ नहीं कर सकते। कष्ट सहने में, या सिद्धान्त की रक्षा के लिए स्त्रियाँ कभी पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। तुम मुझे मजबूर कर रहे हो कि और कुछ नहीं तो लांछन से बचने के लिए मैं दादाजी से अलग रहने की आज्ञा माँगूँ। बोलो?’

अमर लज्जित होकर बोला–‘मुझे क्षमा करो सुखदा! मैं वादा करता हूँ कि दादाजी जैसा कहेंगे, वैसा ही करूँगा।’

‘इसलिए कि तुम्हें मेरे विषय में सन्देह है?’

‘नहीं केवल इसलिए कि मुझमें अभी उतना बल नहीं है।’

इसी समय नैना आकर दोनों को पकौड़ियाँ खिलाने के लिए घसीट ले गयी। सुखदा प्रसन्न थी। उसने आज बहुत बड़ी विजय पायी थी। अमरकान्त झेंपा हुआ था। उसके आदर्श और धर्म की आज परीक्षा हो गयी थी और उसे अपने दुर्बलता का ज्ञान हो गया था। ऊँट पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊँचाई देख चुका था।

जीवन में कुछ सार है, अमरकान्त को इसका अनुभव हो रहा है, वह एक शब्द भी मुँह से ऐसा नहीं निकालना चाहता, जिससे सुखदा को दुःख हो; क्योंकि वह गर्भवती है। उसकी इच्छा के विरुद्ध वह छोटी-से-छोटी बात भी नहीं कहना चाहता। वह गर्भवती है। उसे अच्छी-अच्छी किताबें पढ़कर सुनाई जाती हैं; रामायण, महाभारत और गीता से अब अमर को विशेष प्रेम है; क्योंकि सुखदा गर्भवती है। बालक के संस्कारों का सदैव ध्यान बना रहता है। सुखदा को प्रसन्न रखने की निरन्तर चेष्टा की जाती है। उसे थियेटर, सिनेमा दिखाने में अब अमर को संकोच नहीं होता। कभी फूलों के गजरे आते हैं; कभी को मनोरंजन की वस्तु। सुबह-शाम वह दुकान पर भी बैठता है। सभाओं की ओर उसकी रुचि नहीं है। वह पुत्र का पिता बनने जा रहा है। इसकी कल्पना से उससे ऐसा उत्साह भर जाता है कि कभी-कभी एकान्त में नतमस्कत होकर कृष्ण के चित्र के सामने सिर झुका लेता है। सुखदा तप कर रही है। अमर अपने को नयी जिम्मेदारियों के लिए तैयार कर रहा है, अब तक वह समतल भूमि पर था, बहुत सँभलकर चलने की उतनी ज़रूरत न थी। अब वह ऊँचाई पर जा पहुँचा है। वह बहुत सँभलकर पाँव रखना पड़ता है।

लाला समरकान्त भी आजकल बहुत खुश नज़र आते हैं। बीसों ही बार अन्दर जाकर सुखदा से पूछते हैं, किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है। अमर पर उनकी विशेष कृपादृष्टि हो गयी है। उसके आदर्शवाद को वह उतना बुरा नहीं समझते। एक दिन काले खाँ को उन्होंने दुकान से खड़े-खड़े निकाल दिया। असामियों पर वह उतना नहीं बिगड़ते, उतनी नालिशें नहीं करते। उनका भविष्य उज्ज्वल हो गया है। एक दिन उनकी रेणुका से बातें हो रही थीं। अमरकान्त की निष्ठा की उन्होंने दिल खोलकर प्रशंसा की।

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