उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
रेणुका उतनी प्रसन्न न थी। प्रसव के कष्टों को याद करके वह भयभीत हो जाती थीं। बोलीं–लालाजी, मैं तो भगवान् से यही मनाती हूँ कि जब हँसाया है, तो बीच में रुलाना मत। पहलौंठी में बड़ा संकट रहता है। स्त्री का दूसरा जन्म होता है।’
समरकान्त को ऐसी कोई शंका न थी। बोले–‘मैंने तो बालक का नाम सोच लिया है। उसका नाम होगा–रेणुकान्त।’
रेणुका आशंकित होकर बोलीं–‘अभी नाम-वाम न रखिए लालाजी। इस संकट से उद्दार हो जाए, तो नाम सोच लिया जायेगा। मैं तो सोचती हूँ, दुर्गापाठ बैठा दीजिए। इस मुहल्ले में एक दाई रहती है, उसे अभी से रख लिया जाए, तो अच्छा हो। बिटिया अभी बहुत-सी बातें नहीं समझती। दाई उसे सँभालती रहेगी।’
लालाजी ने इस प्रस्ताव को हर्ष से स्वीकार कर लिया। यहाँ से जब वह लौटे तो देखा–दुकान पर दो गोरे और एक मेम बैठे हुए हैं और अमरकान्त उनसे बातें कर रहा है। कभी-कभी नीचे दरजे के गोरे यहाँ अपनी घड़ियाँ या कोई और चीज़ बेचने के लिए आ जाते थे। लालाजी उन्हें खूब ठगते थे। वह जानते थे कि ये लोग बदनामी के भय से किसी दूसरी दुकान पर न जायेंगे। उन्होंने जाते-ही-जाते अमरकान्त को हटा दिया और खुद सौदा पटाने लगे। अमरकान्त स्पष्टवादी था और यह स्पष्टवादिता का अवसर न था। मेम साहब को सलाम करके पूछा–‘कहिए मेम साहब, क्या हुकुम है?’
तीनों शराब के नशे में चूर थे। मेम साहब ने सोने की एक जंजीर निकालकर कहा–‘सेठजी, हम इसको बेचना चाहता है। बाबा बहुत बीमार है। उसकी दवाई में बहुत खर्च हो गया।’
समरकान्त ने जंजीर लेकर देखा और हाथ में तौलते हुए बोले–‘इसका सोना तो अच्छा नहीं है मेम साहब; आपने कहाँ बनवाया था?’
मेम हँसकर बोली–‘ओ! तुम बराबर यही बात कहता है। सोना बहुत अच्छा है। अंग्रेजी दुकान का बना हुआ है। आप इसको ले लें।’
समरकान्त ने अनिच्छा का भाव दिखाते हुए कहा– ‘बड़ी-बड़ी दुकानें ही तो गाहकों को उलटे छुरे से मूँड़ती हैं। जो कपड़ा बाज़ार में छः आने गज़ मिलेगा, वही अंग्रेजी दुकानों पर बारह आने गज से नीचे न मिलेगा। मैं तो दस रुपये तोले से बेशी नहीं दे सकता।’
‘और कुछ नहीं देगा?’
‘कुछ और नहीं। यह भी आपकी खातिर है।’
|