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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


यह सब झूठ था। उस दिन के बाद आज यह औरत यहाँ पहली बार उसे नज़र आयी थी। संभव है, उसने कभी, इधर-उधर भी देखा हो, पर वह उसे पहचान न सका था।

जब पुलिस पगली को लेकर चली, तो दो हज़ार आदमी थाने तक उसके साथ गये। अब वह जनता की दृष्टि में साधारण स्त्री न थी। देवी के पद पर पहुँच गयी थी। किसी दैवी-शक्ति के बगैर उसमें इतना साहस कहाँ से आ जाता! रात-भर शहर के अन्य भागों में आ-आकर लोग घटनास्थल का मुआयना करते रहे। दो-एक आदमी उस काण्ड की व्याख्या करने में हार्दिक आनन्द प्राप्त कर रहे थे। यों आकर ताँगे के पास खड़ी हो गयी, यों छुरी निकाली, यों झपटी, यों दोनों दुकान पर चढ़े, यों दूसरे गोरे पर टूटी। भैया अमरकान्त सामने न आ जाएँ। तो मेम का काम भी तमाम कर देती। उस समय उसकी आँखों से लाल अँगारे निकल रहे थे। मुख पर ऐसा तेज था, मानो दीपक हो।

अमरकान्त अन्दर गया तो देखा, नैना भावज का हाथ पकड़े सहमी खड़ी है और सुखदा राजसी करुणा से आन्दोलित सजल नेत्र चारपाई पर बैठी हुई है। अमर को देखते ही वह खड़ी हो गयी और बोली–‘यह वही औरत थी न?’

‘हाँ, वही तो मालूम होती है।’

‘तो अब यह फाँसी पा जाएगी?’

‘शायद बच जाए, पर आशा कम है।’

‘अगर इसको फ़ाँसी हो गयी तो मैं समझूँगी, संसार के न्याय उठ गया। उसने कोई अपराध नहीं किया। जिन दुष्टों ने उस पर ऐसा अत्याचार किया, उन्हें यही दण्ड मिलना चाहिए था। मैं अगर न्याय के पद पर होती, तो उसे बेदाग छोड़ देती। ऐसी देवी की तो प्रतिमा बनाकर पूजना चाहिए। उसने अपनी सारी बहनों का मुख उज्ज्वल कर दिया।’

अमरकान्त ने कहा–‘लेकिन यह तो कोई न्याय नहीं कि काम कोई करे सज़ा कोई पाए।’

सुखदा ने उग्र भाव से कहा–‘वे सब एक हैं। जिस जाति में ऐसे दुष्ट हों उस जाति का पतन हो गया है। समाज में एक आदमी कोई बुराई करता है, तो सारा समाज बदनाम हो जाता है और उसका दण्ड सारे समाज को मिलना चाहिए। एक गोरी औरत को सरहद का कोई आदमी उठा ले गया था। सरकार ने उसका बदला लेने के लिए सरहद पर चढ़ाई करने की तैयारी कर दी थी। अपराधी कौन है इसे पूछा भी नहीं। उसकी निगाह में सारा सूबा अपराधी था। इस भिखारिन का कोई रक्षक न था। उसने अपनी आबरू का बदला ख़ुद लिया। तुम जाकर वकीलों से सलाह लो, फाँसी न होने पावे, चाहे कितने ही रुपये खर्च हो जाएँ। मैं तो कहती हूँ, वकीलों को इस मुकदमे की पैरवी मुफ्त करनी चाहिए। ऐसे मुआमले में भी कोई वकील मेहनताना माँगे, तो मैं समझूँगी वह मनुष्य नहीं। तुम अपनी सभा में आज जलसा करके चंदा लेना शुरू कर दो। मैं इस दशा में भी इसी शहर से हज़ारों रुपये जमा कर सकती हूं। ऐसी कौन नारी है, जो उसके लिए नाहीं कर दे।’

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