उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
भिखारिन ने दृढ़ता से कहा–‘मैं हत्यारिन नहीं हूँ।’
‘इन साहबों को तूने नहीं मारा?’
‘हाँ, मैंने मारा है।’
‘तो तू हत्यारिन कैसे नहीं है?’
‘मैं हत्यारिन नहीं हूँ। आज से छः महीने पहले ऐसे ही तीन आदमियों ने मेरी आबरू बिगाड़ी थी। मैं फिर घर नहीं गयी। किसी को अपना मुँह नहीं दिखाया। नहीं कि मैं कहाँ-कहाँ फिरी, कैसी रही, क्या-क्या किया। इस वक्त भी मुझे होश तब आया, जब मैं इन दोनों गोरों को घायल कर चुकी थी। तब मुझे मालूम हुआ कि मैंने क्या किया। मैं बहुत ग़रीब हूँ। मैं नहीं कह सकती, मुझे छुरी किसने दी, कहाँ से मिली और मुझसे इतनी हिम्मत कहाँ से आयी। मैं यह इसीलिए नहीं कह रही हूँ कि मैं फाँसी से डरती हूँ। मैं तो भगवान से मनाती हूँ कि जितनी जल्द हो सके मुझे संसार से उठा लो। जब आबरू लुट गयी, तो जीकर क्या करूँगी।’
इस कथन ने जनता की मनोवृत्ति बदल दी। पुलिस ने जिन लोगों के बयान लिए सबने यही कहा–‘यह पगली है। इधर-उधर मारी-मारी फिरती थी। खाने को दिया जाता था, तो कुत्तों के आगे डाल देती थी। पैसे दिए जाते थे, तो फेंक देती थी।’
एक ताँगेवाले ने कहा–‘यह बीच सड़क पर बैठी हुई थी। कितनी ही घण्टी बजाई, पर रास्ते से हटी नहीं। मजबूर होकर पटरी से तांगा निकाल लाया।’
एक पान वाले ने कहा–‘एक दिन मेरी दुकान पर आकर खड़ी हो गयी। मैंने एक बीड़ा दिया। उसे जमीन पर डालकर पैरों से कुचलने लगी, फिर गाती हुई चली गयी।’
अमरकान्त का बयान भी हुआ। लालाजी तो चाहते थे कि वह इस झंझट में न पड़े. पर अमरकान्त ऐसा उत्तेजित हो रहा था कि उन्हें दुबारा कुछ कहने का हौसला न हुआ। अमर ने सारा वृतान्त कह सुनाया। रंग को चोखा करने के लिए दो-चार बातें अपनी तरफ़ से जोड़ दीं।
पुलिस के अफ़सर ने पूछा–‘तुम कह सकते हो, यह औरत पागल है?’
अमरकान्त बोला–‘जी हाँ, बिल्कुल पागल। बीसियों ही बार उसे अकेले हँसते या रोते देखा। कोई कुछ पूछता था, तो भाग जाती थी।’
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