उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमरकान्त इन ग़रीबों का त्याग देखकर भीतर-ही-भीतर लज्जित हो गया। वह अपने को कुछ समझने लगा था। जिधर निकल जाता, जनता सम्मान करती, लेकिन इन फ़ाकेमस्तों का यह उत्साह देखकर आँखें खुल गयीं। बोला–‘चन्दे की तो अब कोई ज़रूरत नहीं है अम्माँ! रुपये की कमी नहीं है। तुम इसे खर्च कर डालना। हाँ चलो, मैं उन लोगों से तुम्हारी मुलाकात करा दूँ।’
सकीना का उत्साह ठण्डा पड़ गया। सिर झुकाकर बोली–‘जहाँ गरीबों के रुपये नहीं पूछे जाते, वहाँ गरीबों को कौन पूछेगा? वहाँ जाकर क्या करोगी अम्माँ! आयेगी तो यहीं से देख लेना।’
अमरकान्त झेंपता हुआ बोला–‘नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है अम्माँ, वहाँ तो एक पैसा भी हाथ फैलाकर लिया जाता है। ग़रीब-अमीर की कोई बात नहीं है। मैं खुद ग़रीब हूँ। मैंने तो सिर्फ़ इस ख़याल से कहा था कि तुम्हें तकलीफ़ होगी।’
दोनों अमरकान्त के साथ चलीं, तो रास्ते में पाठानिन ने धीरे से कहा–‘मैंने उस दिन तुमसे एक बात कही थी बेटा! शायद तुम भूल गये।’
अमरकान्त ने शर्माते हुए कहा–‘नहीं-नहीं, मुझे याद है। जरा आजकल इसी झंझट में पड़ा रहा। ज्यों इधर से फुरसत मिली, मैं अपने दोस्तों से जिक्र करूँगा।’
अमरकान्त दोनों स्त्रियों का रेणुका से परिचय कराके बाहर निकला, तो प्रो. शान्तिकुमार से मुठभेड़ हुई। प्रोफेसर ने पूछा–‘तुम कहाँ इधर-उधर घूम रहे हो जी? किसी वकील का पता नहीं। मुकदमा पेश होने वाला है। आज मुलाज़िमा का बयान होगा, इन वकीलों से खुदा समझे। ज़रा-सा इज़लास पर खड़े क्यों हो जाते हैं, गोया सारे संसार को उनकी उपासना करनी चाहिए। इससे कहीं अच्छा था कि दो-एक वकीलों को मेहनताने पर रख लिया जाता। मुफ्त का काम बेगार समझा जाता है। इतनी बेदिली से पैरवी की जा रही है कि मेरा ख़ून खौलने लगता है। नाम सब चाहते हैं, काम कोई नहीं करना चाहता। अगर अच्छी जिरह होती, तो पुलिस के सारे गवाह उखड़ जाते। पर यह कौन करता? जानते हैं कि आज मुलज़िमा का बयान होगा, फिर भी किसी को फ़िक्र नहीं।’
अमरकान्त ने कहा–‘ मैं एक-एक को इत्तला दे चुका। कोई न आये तो मैं क्या करूँ।’
शान्ति–मुक़दमा ख़तम हो जाए, तो एक-एक की ख़बर लूँगा।
इतने में लारी आती दिखाई दी। अमरकान्त वकीलों को इत्तला करने दौड़ा। दर्शक चारों तरफ़ से दौड़-दौड़कर अदालत के कमरे में आ पहुँचे। भिखारिन लारी से उतरी और कटघरे के सामने आकर खड़ी हो गयी। उसके आते हज़ारों की आँखें उसकी ओर उठ गयीं; पर उन आँखों में एक भी ऐसी न थी जिसमें श्रद्धा न भरी हो। उसके पीले, मुरझाए हुए मुख पर आत्मगौरव की ऐसी कान्ति थी, जो कुत्सित दृष्टि के उठने के पहले ही निराश और पराभूत करके उसमें श्रद्धा को आरोपित कर देती थी।
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