उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
जज साहब साँवले रंग के नाटे, चकले, वृहदकार मनुष्य थे। उनकी लम्बी नाक और छोटी-छोटी आँखें अनायास ही मुस्कराती मालूम देती थीं। पहले यह महाशय राष्ट्र के उत्साह सेवक़ थे और काँग्रेस के किसी प्रान्तीय जलसे के सभापति हो चुके थे, पर इधर तीन साल से वह जज हो गये थे। अतएव अब राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक रहते थे, पर जानने वाले जानते थे कि अब भी पत्रों में नाम बदलकर अपने राष्ट्रीय विचारों का प्रतिपादन करते रहते हैं। उनके विषय में कोई शत्रु भी यह कहने का साहस नहीं कर सकता था कि वह किसी दबाव या भय से, न्याय-पथ, से जौ-भर भी विचलित हो सकते हैं, उनकी यही न्यायपरता इस समय भिखारिन की रिहाई में बाधक हो रही थी।
जज साहब ने पूछा–‘तुम्हारा नाम?’
भिखारिन ने कहा-‘भिखारिन!’
‘तुम्हारे पिता का नाम?’
‘पिता का नाम बताकर उन्हें कलंकित नहीं करना चाहती।’
‘घर कहाँ है?’
‘भिखारिन ने दुःखी कण्ठ से कहा–‘पूछकर क्या कीजिएगा। आपको इससे क्या काम है?’
‘तुम्हारे ऊपर यह अभियोग है कि तुमने तीन तारीख़ को दो अँग्रेजों को छुरी से ऐसा ज़ख्मी किया कि दोनों उसी दिन मर गये। तुम्हें यह अपराध स्वीकार है?’
भिखारिन ने निश्शंक भाव से कहा–‘आप उसे अपराध कहते हैं, मैं अपराध नहीं समझती।’
‘तुम मारना स्वीकार करती है?’
‘गवाहों ने झूठी गवाही थोड़े ही दी होगी?’
‘तुम्हें अपने विषय में कुछ कहना है?’
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