उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
लाला समरकान्त ने नाच-तमाशे और दावत में ख़ूब दिल खोलकर खर्च किया। वही अमरकान्त जो इस मिथ्या व्यवहारों की आलोचना करते कभी न थकता था, अब मुँह तक न खोलता था, बल्कि उलटे और बढ़ावा देता था–‘जो सम्पन्न हैं, वह ऐसे शुभ अवसर पर न खर्च करेंगे, तो कब करेंगे? धन की यही शोभा है। हाँ, घर फूँककर तमाशा न देखना चाहिए।’
अमरकान्त को अब घर से विशेष घनिष्ठता होती जाती थी। अब वह विद्यालय तो जाने लगा था, पर जलसों और सभाओं से जी चुराता रहता था। अब उसे लेन-देन से उतनी घृणा न थी। शाम-सबेरे बराबर दुकान पर आ बैठता और बड़ी तन्देही से काम करता। स्वभाव में कुछ कृपणता भी आ चली थी। दुःखी जनों पर उसे अब भी दया आती थी; पर वह दुकान की बँधी हुई कौड़ियों का अतिक्रमण न करने पाती। इस अल्पकाय शिशु ने ऊंट के नन्हें–से नकेल की भाँति उसके जीवन का संचालन अपने हाथ में ले लिया था। मानो दीपक के सामने एक भुनगे ने आकर उसकी ज्योति को संकुचित कर दिया था।
तीन महीने बीत गये थे। संध्या का समय था। बच्चा पालने में सो रहा था। सुखदा हाथ में पंखिया लिए एक मोढ़े पर बैठी हुई थी। कृशांगी गर्भिणी विकसित मातृत्व के तेज और शक्ति से जैसे खिल उठी थी। उसके माधुर्य में किशोरी की चपलता न थी, गर्भिणी की आलस्यमय कातरता न थी, माता का शान्त व तृप्त मंगलमय विलास था।
अमरकान्त कालेज से सीधे घर आया और बालक को संकुचित नेत्र से देखकर बोला–‘अब तो ज्वर नहीं है!’
सुखदा ने धीरे से शिशु के माथे पर हाथ रखकर कहा–‘नहीं, इस समय तो नहीं जान पड़ता। अभी गोद में सो गया था, तो मैंने लिटा दिया।’
अमर ने कुर्ते के बटन खोलते हुए कहा–‘मेरा तो आज वहाँ बिल्कुल जी न लगा। मैं तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ कि मुझे संसार की और कोई वस्तु न चाहिए, यह बालक कुशल से रहे। देखो कैसा मुस्करा रहा है।’
सुखदा ने मीठे तिरस्कार से कहा–तुम्हीं ने देख-देखकर नज़र लगा दी है।’
‘मेरा जी चाहता है, इसका चुम्बन ले लूँ।’
‘नहीं-नहीं, सोते हुए बच्चों का चुम्बन न लेना चाहिए।’
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