उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सहसा किसी ने ड्योढ़ी में आकर पुकारा। अमर ने जाकर देखा, तो बुढ़िया पठानिन लाठियां के साहरे खड़ी है। बोला–‘आओ पठानिन, तुमने तो सुना होगा, घर में बच्चा हुआ है।’
पठानिन ने भीतर आकर कहा–‘अल्लाह करे जुग-जुग जिए और मेरी उम्र पाए।
क्यों बेटा, सारे शहर को नेवता और हम पूछे तक न गये। क्या हमीं सबसे ग़ैर थे? अल्लाह जानता है, जिस दिन यह खुशखबरी सुनी, दिल से दुआ निकली की अल्लाह इसे सलामत रखे।’
अमर ने लज्जित होकर कहा– ‘हाँ, यह गलती मुझसे हुई पठानिन, मुआफ़ करो। आओ, बच्चे को देखो। आज इसे न जाने क्यों बुखार हो आया है।’
बुढ़िया दबे पाँव आँगन से होती हुई सामने के बरामदे में पहुँची और बहू को दुआएँ देती हुई बच्चे को देखकर बोली– ‘कुछ नहीं बेटा, नज़र का फ़साद है। मैं एक तावीज़ दिए देती हूँ, अल्लाह चाहेगा, अभी हँसने-खेलने लगेगा।’
सुखदा ने मातृत्व जनित नम्रता से बुढ़िया के पैरों को अंचल से स्पर्श किया और बोली–‘चार दिन भी अच्छी तरह नहीं रहता माता। घर में कोई बढ़ी-बूढ़ी तो है नहीं। मैं क्या जानूँ, कैसे क्या होता है? मेरी अम्माँ हैं, पर वह रोज़ तो यहाँ नहीं आ सकतीं, न मैं ही रोज़ उनके पास जा सकती हूँ।’
बुढ़िया ने फिर आर्शीवाद दिया और बोली–‘जब काम पड़े, मुझे बुला लिया करो बेटा, मैं और किस दिन के लिए जीती हूँ। ज़रा तुम मेरे साथ चले चलो भैया, मैं तावीज़ दे दूँ।’
बुढ़िया ने अपने सलूके की जेब से एक रेशमी कुरता और टोपी निकाली और शिशु के सिरहाने रखते हुए बोली–‘यह मेरे लाल की नज़र है बेटा, इसे मंजूर करो। मैं और किस लायक हूँ। सकीना कई दिन से सी कर रखे हुए थी, चला नहीं जाता बेटा, आज बड़ी हिम्मत करके आयी हूँ।’
सुखदा के पास संबंधियों से मिले हुए कितने ही अच्छे-से-अच्छे कपड़े रखे हुए थे; पर इस सरल उपहार से जो हार्दिक आनन्द प्राप्त हुआ, वह और किसी उपहार से न हुआ था, क्योंकि इसमें अमीरी का गर्व, दिखावे की इच्छा या प्रथा की शुष्कता न थी। इसमें एक शुभचिन्तक की आत्मा थी, प्रेम था और आशीर्वाद था।
बुढ़िया चलने लगी, तो सुखदा ने उसे एक पोटली में थोड़ी-सी मिठाई दी, पान खिलाए और बरौठे तक उसे विदा करने आयी। अमरकान्त ने बाहर आकर एक एक्का किया और बुढ़िया के साथ बैठकर तावीज़ लेने चला। गंडे-तावीज़ पर उसे विश्वास न था; पर वृद्धजनों के आशीर्वाद पर था, और उस तावीज़ को केवल आशीर्वाद समझ रहा था।
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