उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
रास्ते में बुढ़िया ने कहा–‘मैंने तुमसे कुछ कहा था; क्या तुम भूल गये बेटा?’
अमर सचमुच भूल गया था। शर्माता हुआ बोला–‘हाँ पठानिन, मुझे याद नहीं आया। मुआफ़ करो।’
‘वही सकीना के बारे में।’
अमर ने माथा ठोककर कहा–‘हाँ माता, मुझे बिलकुल ख्याल न रहा।’
‘तो अब ख्याल रखो बेटा। मेरे और कौन बैठा हुआ है, जिससे कहूँ। इधर सकीना ने और कई रूमाल बनाए हैं। कई टोपियों के पल्ले भी काढ़े हैं; पर जब चीज़ बिकती नहीं तो दिल नहीं बढ़ता।’
‘मुझे वह सब चीज़ें दे दो। मैं बेचवा दूँगा।’
‘तुम्हें तकलीफ़ न होगी?’
‘कोई तकलीफ़ नहीं। भला इसमें क्या तकलीफ़?’
अमरकान्त को बुढ़िया घर में न ले गयी। इधर उसकी दशा और भी हीन हो गयी थी। रोटियों के भी लाले थे। घर की एक-एक अंगुल ज़मीन पर उसकी दरिद्रता अंकित हो रही थी उस घर में अमर को क्या ले जाती। बुढ़ापा निस्संकोच होने पर भी कुछ परदा रखना ही चाहता है। यह उसे एक्के ही पर छोड़कर अन्दर गयी, और थोड़ी देर में तावीज़ और रूमालों की बक़ची लेकर आ पहुँची।
‘तावीज़ उसके गले में बाँध देना। फिर कल मुझसे हाल कहना।’
‘कल मेरी तातील है। दो-चार दोस्तों से बातें करूँगा। शाम तक बन पड़ा तो आऊँगा, नहीं फिर किसी दिन आ जाऊँगा।’
घर आकर अमर ने तावीज़ बच्चे के गले में बाँधी और दुकान पर जा बैठा। लालाजी ने पूछा–‘कहाँ गये थे? दुकान के वक़्त कहीं मत जाया करो।’
अमर ने क्षमा–प्रार्थना के भाव से कहा–‘आज पठानिन आ गयी। बच्चे के लिए तावीज़ देने को कहा था, वही लेने चला गया था।’
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