उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘मैंने अभी देखा। अब तो अच्छा मालूम होता है। दुष्ट ने मेरी मूँछें पकड़कर खींच लीं। मैंने भी कसकर एक घूँसा जमाया बचा को। हाँ, खूब याद आयी, तुम बैठो ज़रा शास्त्रीजी के पास से जन्म-पत्र लेता आऊँ। आज उन्होंने देने का वादा किया था।’
लालाजी चले गये, तो अमर फिर घर में जा पहुँचा और बच्चे को गोद में लेकर बोला–‘क्यों जी, तुम हमारे बाप की मूछें उखाड़ते हो! ख़बरदार, जो फिर उनकी मूछें छुईं, नहीं दाँत तोड़ दूँगा।’
बालक ने उसकी नाक पकड़ ली और उसे निगल जाने की चेष्टा करने लगा, जैसे हनुमान सूर्य को निगल रहे हों।
सुखदा हँसकर बोली–‘पहले अपनी नाक बचाओ, फिर बाप की मूँछें बचाना।’
सलीम ने इतने ज़ोर से पुकारा कि सारा घर हिल उठा।
अमरकान्त ने बाहर आकर कहा–‘तुम बड़े शैतान हो यार, ऐसे चिल्लाए कि मैं घबरा गया। किधर से आ रहे हो? आओ, कमरे में चलो।’
दोनों आदमी बग़ल वाले कमरे में गये। सलीम ने रात को एक गज़ल कही थी। वही सुनाने आया था। ग़ज़ल कह लेने के बाद जब तक वह अमर को सुना न ले, उसे चैन न आता था।
अमर ने कहा–‘मगर मैं तारीफ़ न करूँगा, यह समझ लो!’
–शर्त तो जब है कि तुम तारीफ़ न करना चाहो, फिर भी करो–
‘यही दुनियाए उलफ़त में, हुआ करता है होने दो,
तुम्हें हँसना मुबारक हो, कोई रोता है, रोने दो।’
अमर ने झूमकर कहा–‘लाजवाब शेर है भई! बनावट नहीं, दिल से कहता हूँ। कितनी मजबूरी है–वाह!’
सलीम ने दूसरा शेर पढ़ा–
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