उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘क़सम ले लो जो शिकवा हो तुम्हारी बेवफा़ई का,
किए को अपने रोता हूँ मुझे जी-भर के रोने दो।’
अमर–बड़ा दर्दनाक शेर है, रोंगटे खड़े हो गये। जैसे कोई अपनी बीती गा रहा हो।
इस तरह सलीम ने पूरी ग़ज़ल सुनाई और अमर ने झूम-झूमकर सुनी!
फिर बातें होने लगीं। अमर ने पठानिन के रूमाल दिखाने शुरू किए।
‘एक बुढ़िया रख गयी है। ग़रीब औरत है। जी चाहे दो-चार ले लो।’
सलीम ने रूमालों को देखकर कहा–‘चीज़ तो अच्छी है यार, लाओ एक दर्जन लेता जाऊँ। किसने बनाए हैं?’
‘उसी बुढ़िया की एक पोती है।’
‘अच्छा, वही तो नहीं, जो एक बार कचहरी में पगली के मुक़दमे में गयी थी? माशूक़ तो यार तुमने अच्छा छाँटा।’
अमरकान्त ने अपनी सफ़ाई दी–‘क़सम ले लो, जो मैंने उसकी तरफ़ देखा भी हो।’
‘मुझे क़सम लेने की ज़रूरत! तुम्हें वह मुबारक हो, मैं तुम्हारा रक़ीब नहीं बनना चाहता। रूमाल कितने दर्जन के हैं?’
‘जो मुनासिब समझो, दे दो।’
‘इसकी क़ीमत बनाने वाले के ऊपर मुनहसर है। अगर उस हसीना ने बनाए हैं, तो फ़ी रूमाल पाँच रुपये। बुढ़िया या किसी और ने बनाए हैं, तो फ़ी रूमाल चार आने।’
‘तुम मज़ाक करते हो। तुम्हें लेना मंजूर नहीं।’
‘पहले यह बताओ, किसने बनाए हैं?’
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