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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सकीना सामने के सायबान में जाकर बोली–मेरे कपड़े गीले हैं। आपकी आवाज़ सुनकर मैंने चिराग बुझा दिया।’

‘तो गीले कपड़े क्यों पहन रखे हैं?’

‘कपड़े मैले हो गये थे। साबुन लगाकर रख दिए थे। अब और कुछ न पूछिए। कोई दूसरा होता, तो मैं किवाड़ न खोलती।’

अमरकान्त का कलेजा मसोस उठा। उफ़! इतनी घोर दरिद्रता! पहनने को कपड़े तक नहीं। अब उसे ज्ञात हुआ कि कल पठानिन ने रेशमी कुरता और टोपी उपहार में दी थी, उसके लिए कितना त्याग किया था, दो रुपये से कम क्या ख़र्च हुए होंगे। दो रुपये में दो पाजामे बन सकते थे। इन ग़रीब प्राणियों में कितनी उदारता है। जिसे ये अपना धर्म समझते हैं, उसके कितना कष्ट झेलने को तैयार रहते हैं।

उसने सकीना से काँपते हुए स्वर में कहा–‘तुम चिराग जला लो। मैं अभी आता हूँ।’

गोबर्धन सराय से चौक तक वह हवा के वेग से गया; पर बाज़ार बन्द हो चुका था। अब क्या करे? सकीना अभी तक गीले कपड़े पहने बैठी होगी। आज इन सबों ने इतनी जल्द क्यों दुकान बन्द कर दी? वह यहाँ से उसी वेग के साथ घर पहुँचा। सुखदा के पास पचासों साड़ियाँ हैं, कई मामूली भी हैं। क्या वह उनमें से साड़ियाँ न दे देगी? मगर वह पूछेगी–‘क्या करोगे, तो क्या जवाब देगा? साफ़-साफ़ कहने से वह शायद शक करने लगे। नहीं, इस वक़्त सफ़ाई देने का अवसर न था। सकीना गीले कपड़े पहने उनकी प्रतीक्षा कर रही होगी। सुखदा नीचे थी। वह चुपके से ऊपर चला गया, गठरी खोली और उसमें से चार साड़ियाँ निकालकर दबे पाँव चल दिया।’

सुखदा ने पूछा–‘अब कहाँ जा रहे हो? भोजन क्यों नहीं कर लेते?’

अमर ने बरौठे से जवाब दिया–‘अभी आता हूँ।’

कुछ दूर जाने पर उसने सोचा–‘कल कहीं सुखदा ने अपनी गठरी खोला और साड़ियाँ न मिलीं, तो बड़ी मुश्किल पड़ेगी। नौकरों के सिर खाएगी। क्या वह उस वक़्त यह कहने का साहस रखता था कि वे साड़ियाँ मैंने एक ग़रीब औरत को दे दी हैं? नहीं वह यह नहीं कह सकता। तो साड़ियां ले जाकर रख दे? मगर वहाँ सकीना गीले कपड़े पहने बैठी होगी। फिर ख़याल आया–‘सकीना इन साड़ियों को पाकर कितनी प्रसन्न होगी।’ इस ख़याल ने उसे उन्मत्त कर दिया। जल्द-जल्द क़दम बढ़ाता हुआ सकीना के घर जा पहुँचा।’

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