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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सलीम ने ज़रा भी बुरा न मानकर कहा–‘तुम ज़रूरत से ज़्यादा सीधे हो यार, ख़ौफ़ है, किसी आफ़त में न फँस जाओ।’

दूसरे दिन अमरकान्त ने दुकान बढ़ाकर जेब में पाँच रुपये रखे, पठानिन के घर पहुँचा और आवाज़ दी। वह सोच रहा था–‘सकीना रुपये पाकर कितनी ख़ुश होगी!’

अन्दर से आवाज़ आयी–‘कौन है?’

अमरकान्त ने अपना नाम बतलाया।

द्वार तुरन्त खुल गये और अमरकान्त ने अन्दर क़दम रखा; पर देखा तो चारों तरफ़ अँधेरा। पूछा–‘आज दिया नहीं जलाया, अम्माँ?’

सकीना बोली–‘अम्माँ तो एक जगह सिलाई का काम लेने गयी हैं।’

‘अँधेरा क्यों है? चिराग़ में तेल नहीं है?’

सकीना धीरे से बोली–तेल तो है।’

‘फिर दिया क्यों नहीं जलाया; दियासलाई नहीं है?’

‘दियासलाई भी है।’

‘तो फिर चिराग़ जलाओ। कल जो रूमाल मैं ले गया था, वह पाँच रुपये पर बिक गये हैं, ये रुपये ले लो। चटपट चिराग़ जलाओ।’

सकीना ने कोई जवाब न दिया। उसकी सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी। अमर ने चौंककर पूछा–‘क्या बात है सकीना? तुम रो क्यों रही हो?’

सकीना ने सिसकते हुए कहा–‘कुछ नहीं, आप जाइए। मैं अम्माँ को रुपये दे दूँगी।’

अमर ने व्याकुलता से कहा–‘जब तक तुम बता न दोगी, मैं न जाऊँगा। तेल न हो मैं ला दूँ, दिलासलाई न हो तो मैं ला दूँ, कल एक लैम्प लेता आऊँगा। कुप्पी के सामने बैठकर काम करने से आँखें खराब हो जाती हैं। घर के आदमी से क्या परदा। मैं अगर तुम्हें ग़ैर समझता, तो इस तरह बार-बार क्यों आता।’

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