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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सकीना ने अमर की मुद्रा देखी। मालूम होता था, रोना ही चाहता है। उसके जी में आया, साड़ियाँ उठाकर छाती से लगा ले, पर संयम ने हाथ न उठाने दिया। अमर ने साड़ियाँ उठा लीं और लड़खड़ाता हुआ द्वार से निकल गया, मानों अब गिरा, अब गिरा।

१४

अमरकान्त का मन फिर से घर से उचाट होने लगा। सकीना उसकी आँखों में बसी हुई थी। सकीना के ये शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे–...‘ मेरे लिए दुनिया कुछ और हो गयी है। मैं अपने दिल में ऐसी ताक़त, ऐसी उमंग पाती हूँ...’ इन शब्दों में उसकी पुरुष कल्पना को ऐसी आनन्दप्रद उत्तेजना मिलती थी कि वह अपने को भूल जाता था। फिर दुकान से उसकी रुचि घटने लगी। रमणी की नम्रता और सलज्ज अनुरोध का स्वाद पा जाने के बाद अब सुखदा की प्रतिभा और गरिमा उसे बोझ–सी लगती थी। वह हरे-भरे पत्तों में रूखी-सूखी सामग्री थी, यहाँ सोने-चाँदी के थालों में नाना व्यंजन सजे हुए थे। वहाँ सरल स्नेह था, यहाँ गर्व का दिखावा था। वहाँ सरल स्नेह का प्रसाद उसे अपनी ओर खींचता था, यह अमीरी ठाट अपनी ओर से हटाता था। बचपन में ही वह माता के स्नेह से वंचित हो गया था। जीवन के पन्द्रह साल उसने शुष्क शासन में काटे। कभी माँ डाँटती, कभी बाप बिगड़ता, केवल नैना की कोमलता उसके भग्न हृदय पर फाहा रखती रहती थी। सुखदा भी आयी, तो वही शासन और गरिमा लेकर; स्नेह का प्रसाद उसे यहाँ भी न मिला। वह चिरकाल की स्नेह-तृष्णा किसी प्यासे पक्षी की भाँति, जो कई सरोवरों के सूखे तट से निराश लौट आया हो, स्नेह की यह शीतल छाया देखकर विश्राम और तृप्ति के लोभ से उसकी शरण में आयी। यहाँ शीतल छाया ही न थी, जल भी था। पक्षी यहीं रम जाए, तो कोई आश्चर्य है!

उस दिन सकीना की घोर दरिद्रता देखकर वह आहत हो उठा था। वह विद्रोह जो कुछ दिनों उसके मन में शान्त हो गया था फिर दूने वेग से उठा। वह धर्म के पीछे लाठी लेकर दौड़ने लगा। धन के बन्धन का उसे बचपन से ही अनुभव होता आया था। धर्म का बन्धन उससे कहीं कठोर, कहीं असह्य, कहीं निरर्थक था। धर्म का काम संसार में मेल और एकता पैदा करना होना चाहिए। यहाँ धर्म ने विभिन्नता और द्वेष पैदा कर दिया है। क्यों खानपान में, रस्म-रिवाज में धर्म अपनी टाँगें अड़ाता है। मैं चोरी करूँ, ख़ून करूँ, धोखा दूँ, धर्म मुझे अलग नहीं कर सकता। अछूते के हाथ से पानी पी लूँ, धर्म छूमन्तर हो गया। अच्छा धर्म है! हम धर्म के बाहर किसी से आत्मा का संबंध भी नहीं कर सकते। आत्मा को भी धर्म ने बाँध रखा है, प्रेम को भी जकड़ रखा है। यह धर्म नहीं, धर्म का कलंक है।

अमरकान्त इसी उधेड़बुन में पड़ा रहता। बुढ़िया हर महीने, और कभी-कभी महीने में दो-तीन बार, रूमालों की पोटलियाँ बनाकर लाती और अमर उसे मुँहमाँगे दाम देकर ले लेता। रेणुका उसको जेब ख़र्च के लिए जो रुपये देतीं, वह सब-के-सब रूमालों में जाते। सलीम का भी इस व्यवसाय में साझा था। उसके मित्रों में ऐसा कोई न था, जिसने एक-आध दर्जन रूमाल न लिए हों। सलीम के घर से सिलाई का काम भी मिल जाता। बुढ़िया का सुखदा और रेणुका से भी परिचय हो गया था। चिकन की साड़ियाँ और चादरें बनाने का काम भी मिलने लगा; लेकिन उस दिन से अमर बुढ़िया के घर न गया। कई बार वह मज़बूत इरादा करके चला; पर आधे रास्ते से लौट आया।

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