उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
विद्यालय में एक बार ‘धर्म’ पर विवाद हुआ। अमर ने उस अवसर पर जो भाषण दिया, उसने सारे शहर में धूम मचा दी। वह अब क्रान्ति ही में देश का उद्धार समझता था–ऐसी क्रान्ति में, जो सर्वव्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदर्शों को, झूठे सिद्धान्तों का, परिपाटियों का अन्त कर दे, जो एक नए युग की प्रवर्तक हो, एक नई सृष्टि खड़ी कर दे, जो मिट्टी के असंख्या देवताओं को तोड़-फोड़कर चकनाचूर कर दे, जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकने वाले राज्य के पंजे से मुक्त कर दे। उसके एक-एक अणु से ‘क्रान्ति! क्रान्ति!’ की सदा निकलती रहती थी; लेकिन उदार हिन्दू-समाज उस वक़्त तक किसी से नहीं बोलता, जब तक उसके लोकाचार पर खुल्लम-खुल्ला आघात न हो। कोई क्रान्ति नहीं, क्रान्ति के बाबा का ही उपदेश क्यों न करे, उसे परवाह नहीं होती; लेकिन उपदेश की सीमा के बाहर व्यवहार–क्षेत्र में, किसी ने पाँव निकाला और समाज ने उसकी गरदन पकड़ी। अमर की क्रान्ति अभी तक व्याख्यानों और लेखों तक ही सीमित थी। डिग्री की परीक्षा समाप्त होते ही वह व्यवहार–क्षेत्र में उतरना चाहता था। पर अभी परीक्षा को एक महीना बाक़ी ही था कि एक ऐसी घटना हो गयी, जिसने उसे मैदान में आने पर मज़बूर कर दिया। यह सकीना की शादी थी।
एक दिन संध्या समय अमरकान्त दुकान पर बैठा हुआ था कि बुढ़िया, सुखदा की चिकन की साड़ी लेकर आयी और अमर से बोली–‘बेटा, अल्ला के फ़जल से सकीना की शादी ठीक हो गयी है! आठवीं को निकाह हो जाएगा। और तो मैंने सब सामान जमा कर लिया है; पर कुछ रुपये से मदद करना।’
अमर की नाड़ियों में जैसे रक्त न था। हकलाकर बोला–‘सकीना की शादी! ऐसी क्या जल्दी थी?’
‘क्या करती बेटा, ‘गुज़र तो नहीं होता, फिर जवान लड़की! बदनामी भी तो है।’
‘सकीना भी राजी है?’
बुढ़िया ने सरल भाव में कहा–‘लड़कियाँ कहीं अपने मुँह से कुछ कहती हैं बेटा? वह तो नहीं-नहीं किए जाती है।’
अमर ने गरजकर कहा–‘फिर भी तुम उसकी शादी किए देती हो?’ फिर सँभलकर बोला–‘रुपये के लिए दादा से कहो।’
‘तुम मेरी तरफ़ से सिफ़ारिश कर देना बेटा, कह तो मैं आप लूँगी।’
‘मैं सिफारिश करने वाला कौन होता हूँ? दादा तुम्हें जितना जानते हैं, उतना मैं नहीं जानता।’
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