उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
बुढ़िया को वहीं खड़ी छोड़कर, अमर बदहवास सलीम के पास पहुँचा। सलीम ने उसकी बौखलाई हुई सूरत देखकर पूछा–‘ख़ैर तो है? बदहवास क्यों हो?’
अमर ने संयत होकर कहा–‘बदहवास तो नहीं हूँ। तुम खुद बदहवास होगे।’
‘अच्छा तो आओ, तुम्हें अपनी ताज़ी ग़ज़ल सुनाऊँ। ऐसे-ऐसे शेर निकाले हैं कि फड़क न जाओ तो मेरा ज़िम्मा।’
अमरकान्त की गर्दन में जैसे फाँसी पड़ गयी, पर कैसे कहे–‘मेरी इच्छा नहीं है’ सलीम ने मतला पढ़ा–
बहला के सवेरा करते हैं इस दिल को उन्हीं की बातों में,
दिल जलता है अपना जिनकी तरह, बरसात की भीगी रातों में।
अमर ने ऊपरी दिल से कहा–‘अच्छा शेर है।’
सलीम हतोत्साह न हुआ। दूसरा शेर पढ़ा–
कुछ मेरी नज़र ने उठके कहा कुछ उनकी नज़र ने झुक के कहा,
झगड़ा जो न बरसों में चुकता, तय हो गया बातों-बातों में। अमर झूम उठा–‘खूब कहा है भई! वाह-वाह! लाओ क़लम चूम लूँ। सलीम ने तीसरा शेर सुनाया–
यह यास का सन्नाटा तो न था, जब आस लगाए सुनते थे,
माना था कि धोखा ही धोखा, उन मीठी-मीठी बातों में।’
अमर के कलेजा थाम लिया–‘गजब का दर्द है भई! दिल मसोस उठा।’
एक क्षण के बाद सलीम ने छेड़ा–‘इधर एक महीने से सकीना ने कोई रूमाल नहीं भेजा क्या?’
अमर ने गम्भीर होकर कहा–‘तुम तो यार मज़ाक करते हो। उसकी शादी हो रही है। एक ही हफ़्ता और है।’
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