उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘तो तुम दुलहिन की तरफ़ से बारात में जाना। मैं दूल्हें की तरफ़ से जाऊँगा।’
अमर ने आँखें निकालकर कहा–‘मेरे जीते-जी यह शादी नहीं हो सकती। मैं तुमसे कहता हूँ सलीम, मैं सकीना के दरवाज़ें पर जान दे दूँगा, सिर पटककर मर जाऊँगा।’
सलीम ने घबड़ाकर पूछा–‘यह तुम कैसी बातें कर रहे हो भाईजान? सकीना पर आशिक़ तो नहीं हो गये? क्या सचमुच मेरा गुमान सही था?’
अमर ने आँखों में आँसू भरकर कहा–‘मैं कुछ नहीं कह सकता, मेरी क्यों ऐसी हालत हो रही है सलीम; पर जब से मैंने यह खब़र सुनी है, मेरे ज़िगर में जैसे आरा-सा चल रहा है।’
‘आख़िर तुम चाहते क्या हो? तुम उससे शादी तो नहीं कर सकते।’
‘क्यों नहीं कर सकता?’
‘बिल्कुल बच्चे न बन जाओ। ज़रा अक़्ल से काम लो।’
‘तुम्हारी यही तो मंशा है कि वह मुसलमान है, मैं हिन्दू हूँ। मैं प्रेम के सामने मज़हब की हक़ीकत नहीं समझता, कुछ भी नहीं।’
सलीम ने अविश्वास के भाव से कहा–‘तुम्हारे ख़यालात तक़रीरों में सुन चुका हूँ, अख़बारों में पढ़ चुका हूँ। ऐसे ख़यालात बहुत ऊँचे, बहुत पाकीजा, दुनिया में इन्क़लाब पैदा करने वाले हैं और कितनों ही ने इन्हें जाहिर करके नामवरी हासिल की है, लेकिन इल्मी बहस दूसरी चीज़ है, उस पर अमल करना दूसरी चीज़ है। बग़ावत पर इल्मी बहस कीजिए, लोग उसे शौक से सुनेंगे। बग़ावत करने के लिए तलवार उठाइए और आप सारी सोसाइटी के दुश्मन हो जायेंगे। इल्मी बहस से किसी को चोट नहीं लगती। बग़ावत से गरदनें कटती हैं। मगर तुमने सकीना से भी पूछा, वह तुमसे शादी करने पर राज़ी है?’
अमर कुछ झिझका। इस तरफ़ उसने ध्यान ही न दिया था। उसने शायद दिल में समझ लिया था, मेरे कहने की देर है, वह तो राजी ही है। उन शब्दों के बाद अब उसे कुछ पूछने की ज़रूरत न मालूम हुई।
‘मुझे यक़ीन है कि वह राज़ी है।’
‘यक़ीन कैसे हुआ?’
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