लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


नैना ने भाग जाना चाहा। बारह बरस की यह लज्जाशील बालिका एक साथ ही सरल भी थी और चतुर भी। उसे ठगना सहज था, उससे अपनी चिन्ताओं को छिपाना कठिन था।

अमर ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला–‘जब तक बताओगी नहीं, मैं जाने न दूँगा। किसी से कहूँगा नहीं, सच कहता हूँ।’

नैना झेंपती हुई बोली–‘दादा से लिए।’

अमरकान्त ने बेदिली के साथ कहा–‘तुमने उनसे नाहक माँगे नैना। जब उन्होंने मुझे इतनी निर्दयता से दुत्कार दिया, तो मैं नहीं चाहता कि उनसे एक पैसा भी माँगूं। मैंने तो समझा था, तुम्हारे पास कहीं पड़े होंगे; अगर मैं जानता कि तुम भी दादा से ही माँगोगी तो साफ़ कह देता, मुझे रुपये की ज़रूरत नहीं। दादा क्या बोले?’

नैना सजल नेत्र होकर बोली–बोले तो नहीं। यही कहते रहे कि करना-धरना तो कुछ नहीं, रोज रुपये चाहिए, कभी फ़ीस; कभी किताब; कभी चंदा। फिर मुनीमजी से कहा बीस रुपये दे दो। बीस रुपये फिर देना।

अमर ने उत्तेजित होकर कहा–तुम रुपये लौटा देना, मुझे नहीं चाहिए।

नैना सिसक-सिसककर रोने लगी। अमराकान्त ने रुपये ज़मीन पर फेंक दिए थे और वह सारी कोठरी में बिखरे पड़े थे। दो में एक भी चुनने का नाम न लेता था। सहसा लाला समरकान्त आकर द्वार पर खड़े हो गये। नैना की सिसकियाँ बन्द हो गयीं और अमरकान्त मानो तलवार की चोट खाने के लिए अपने मन को तैयार करने लगा। लालाजी दोहरे बदन के दीर्घकाय मनुष्य थे। सिर से पाँव तक सेठ–वही खल्वाट मस्तक, वही फूले हुए कपोल, वही निकली हुई तोंद। मुख पर संयम का तेज था, जिसमें स्वार्थ की गहरी झलक मिली हुई थी। कठोर स्वर में बोले–चरखा चला रहा है। इतनी देर में कितना सूत काता? होगा दो चार रुपये का।

अमरकान्त ने गर्व से कहा–‘चरखा रुपये के लिए नहीं चलाया जाता।’

‘और किसलिए चलाया जाता है?’

‘यह आत्म-शुद्धि का एक साधन है।

समरकान्त के घाव पर जैसे नमक पड़ गया। ‘बोले–‘यह आज नई बात मालूम हुई। तब तो तुम्हारे ऋषि होने में कोई सन्देह नहीं रहा; मगर साधना के साथ कुछ घर-गृहस्थी का काम भी देखना होता है। दिनभर स्कूल में रहो, वहां से लौटो तो चरखे पर बैठो, रात को तुम्हारी स्त्री-पाठशाला खुले, संध्या समय जलसे हों, तो घर का धन्धा कौन करे? मैं बैल नहीं हूँ। तुम्हीं लोगों के लिए इस जंजाल में फँसा हुआ हूं। अपने ऊपर लाद न ले जाऊंगा। तुम्हें कुछ तो मेरी मदद करनी चाहिए। बड़े नीतिवान बनते हो, क्या यही नीति है कि बूढ़ा बाप मरा करे और जवान बेटा उसकी बात भी न पूछे?’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book