उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमरकान्त ने उद्दण्डता से कहा–‘मैं तो आपसे बार-बार कह चुका, आप मेरे लिए कुछ न करें। मुझे धन की ज़रूरत नहीं। आपकी भी वृद्धावस्था है। शान्तचित्त होकर भगवत-भजन कीजिए।’
समरकान्त तीखे शब्दों में बोले–‘धन न रहेगा लाला, तो भीख माँगोगे। यों चैन से बैठकर चरखा न चलाओगे। यह तो न होगा, मेरी कुछ मदद करो, पुरुषार्थहीन मनुष्यों की तरह कहने लगे, मुझे धन की ज़रूरत नहीं? कौन है, जिसे धन की ज़रूरत नहीं? साधु-संन्यासी तक तो पैसों पर प्राण देते हैं। धन बड़े पुरुषार्थ से मिलता है। जिसमें पुरुषार्थ नहीं, वह क्या धन कमायेगा? बड़े-बड़े तो धन की उपेक्षा कर ही नहीं सकते, तुम किस खेत की मूली हो!’
अमर ने उसी वितण्डा-भाव से कहा–‘संसार धन के लिए प्राण दे, मुझे धन की इच्छा नहीं। एक मजूर भी धर्म और आत्मा की रक्षा करते हुए जीवन का निर्वाह कर सकता है। कम-से-कम मैं अपने जीवन में इसकी परीक्षा करना चाहता हूं।’
लालाजी को वाद-विवाद का अवकाश न था। हारकर बोले–‘अच्छा बाबा, कर लो खूब जी-भरकर परीक्षा; लेकिन रोज़-रोज़ रुपये के लिए मेरा सिर न खाया करो। मैं अपनी गाढ़ी कमाई तुम्हारे व्यसन के लिए नहीं लुटाना चाहता।’
लालाजी चले गये। नैना कहीं एकान्त में जाकर खूब रोना चाहती थी; पर हिल न सकती थी; और अमरकान्त ऐसा विरक्त हो रहा था, मानो जीवन उसे भार हो रहा है।
उसी वक़्त महरी ने ऊपर से आकर कहा–‘भैया, तुम्हें बहूजी बुला रही हैं।
अमरकान्त ने बिगड़कर कहा–‘जा कह दे, फुरसत नहीं है। चली वहां से–बहूजी बुला रही हैं।’
लेकिन जब महरी लौटने लगी, तो उसने अपने तीखेपन पर लज्जित होकर कहा–‘मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा सिल्लो! कह दो, अभी आता हूं। तुम्हारी रानीजी क्या कर रही हैं।
सिल्लो का पूरा नाम था कौशल्या। सीतला में पति, पुत्र और एक आँख जाती रही थी। तब से विक्षिप्त–सी हो गयी थी। रोने की बात पर हँसती, हँसने की बात पर रोती। घर के और सभी प्राणी, यहाँ तक कि नौकर-चाकर तक उसे डाँटते रहते थे। केवल अमरकान्त उसे मनुष्य समझता था। कुछ स्वस्थ होकर बोली–‘बैठी कुछ लिख रही हैं। लालाजी चीखते थे। इसी से तुम्हें बुला भेजा।’
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