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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
राजा–नहीं तो, अभी-अभी आया हूँ। तुम लिख रही थीं। मैंने छेड़ना उचित न समझा।
मनोरमा–आपकी खाँसी बढ़ती ही जाती है, और आप इसकी कुछ दवा नहीं करते।
राजा–आप-ही-आप अच्छी हो जायेगी। बाबू चक्रधर तो १० बजे की डाक से आ रहे हैं न? उनके स्वागत की तैयारियाँ पूरी हो गई?
मनोरमा–मैं चाहता हूँ, जुलूस इतनी धूमधाम से निकले कि कम-से-कम इस शहर के इतिहास में अमर हो जाये।
मनोरमा–यही तो मैं भी चाहती हूँ।
राजा–मैं सैनिकों के आगे फ़ौजी वर्दी में रहना चाहता हूँ।
मनोरमा ने चिन्तित होकर कहा–आपका जाना उचित नहीं जान पड़ता। आप यहीं उनका स्वागत कीजिएगा। अपनी मर्यादा का निर्वाह तो करना ही पड़ेगा। सरकार यों भी हम लोगों पर सन्देह करती है, तब तो वह सत्तू बाँधकर हमारे पीछे पड़ जाएगी।
राजा–कोई चिन्ता नहीं। संसार में सभी प्राणी राजा ही तो नहीं है। शान्ति राज्य में नहीं; सन्तोष में है। मैं अवश्य चलूँगा, अगर रियासत ऐसे महात्माओं के दर्शन में बाधक होती है, तो उससे इस्तीफ़ा दे देना ही अच्छा।
मनोरमा ने राजा की ओर बड़ी करुण दृष्टि से देखकर कहा–यह ठीक है; लेकिन जब मैं जा रही हूँ तो आप के जाने की ज़रूरत नहीं।
राजा–खैर न जाऊँगा; लेकिन यहाँ मैं अपनी ज़बान को न रोकूँगा। उनके गुज़ारे की भी तो कुछ फ़िक्र करनी होगी?
मनोरमा–मुझे भय है कि वह कुछ लेना स्वीकार न करेंगे। बड़े त्यागी पुरुष हैं।
राजा–यह तो मैं जानता हूँ। उनके त्याग का क्या कहना! चाहते तो अच्छी नौकरी करके आराम से रहते; पर दूसरों के उपकार के लिए प्राणों को हथेली पर लिये रहते हैं। उन्हें धन्य है! लेकिन उनका किसी तरह गुज़र-बसर तो होना ही चाहिए। तुम्हें संकोच होता हो, तो मैं कह दूँ।
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