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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–नहीं, आप न कहिएगा, मैं ही कहूँगी। मान लें, तो है।
राजा–मेरी और उनकी तो बहुत पुरानी मुलाक़ात है। मैं तो उनकी समिति का मेम्बर था। अब फिर नाम लिखाऊँगा। कितने रुपये तुम्हारे विचार में काफ़ी होंगे? रकम ऐसी होनी चाहिए, जिसमें उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होने पाए।
मनोरमा–मैं तो समझती हूँ, ५० रु. बहुत होंगे। उन्हें और ज़रूरत ही क्या है?
राजा–नहीं, उनके लिए एक दस रुपए काफ़ी हैं। ५० रु. की थैली लेकर भला वह क्या करेंगे। तुम्हें कहते शर्म न आई? ५० रु. में आजकल रोटियाँ भी नहीं चल सकतीं, और बातों का तो जिक्र ही क्या। एक भले आदमी के निर्वाह के लिए इस ज़माने में ५०० रु. से कम नहीं ख़र्च होते।
मनोरमा–पाँच सौ! कभी न लेंगे। ५० रु. ही ले लें, मैं इसी को ग़नीमत समझती हूँ। पाँच सौ का तो नाम ही सुनकर वह भाग खड़े होंगे।
राजा–हमारा जो धर्म है, वह हम कर देंगे, लेने या न लेने का उनको अख़्तियार है।
मनोरमा फिर लिखने लगी, और यह राजा साहब को वहाँ से चले जाने का संकेत था; पर राजा साहब ज़्यों-का-त्यों बैठे रहे। उनकी दृष्टि मकरन्द के प्यासे भ्रमर की भाँति मनोरमा के मुख कमल माधुर्य रसपान कर रही थी। उसकी बाँकी अदा आज उनकी आँखों में खुबी जाती थी। मनोरमा का श्रृंगार-रूप आज तक उन्होंने न देखा था। इस समय उनके हृदय में जो गुदगुदी हो रही थी। वह उन्हें कभी न हुई थी। दिल थाम-थामकर रह जाते थे। मन में बार-बार एक प्रश्न उठता था; पर जल में उछलनेवाली मछलियों की भाँति फिर मन में विलीन हो जाता था। प्रश्न था–इसका वास्तविक स्वरूप यह है या वह?
सहसा घड़ी में नौ बजे। मनोरमा कुर्सी से उठ खड़ी हुई। राजा साहब भी किसी वृक्ष की छाया में विश्राम करनेवाले पथिक की भाँति उठे और धीरे-धीरे द्वार की ओर चले। मनोरमा ने करुण कोमल नेत्रों से देखकर कहा–अच्छी बात है, चलिए, लेकिन पिताजी के पास किसी अच्छे डॉक्टर को बिठाते जाइएगा, नहीं तो शायद उनके प्राण न बचें।
राजा–दीवान साहब रियासत के सच्चे शुभचिन्तक हैं।
२४
रेलवे-स्टेशन पर कहीं तिल रखने की जगह न थी। अन्दर का चबूतरा और बाहर का सहन-रहन सब आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे पर विद्यालयों के छात्र थे, रंग-बिरंगे की वर्दियाँ पहने हुए; और सेवा-समितियों के सेवक, रंग-बिरंग की झंडिया लिए हुए। मनोरमा नगर की कई महिलाओं के साथ आँचल में फूल भरे सेवकों के बीच में खड़ी थी। उसका एक-एक अंग आनन्द से पुलकित हो रहा था। बरामदे में राजा विशालसिंह, उनके मुख्य कर्मचारी और शहर के रईस और नेता ज़मा थे। मुंशी वज्रधर इधर-उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे–कोई घबराहट की बात नहीं, कोई तमाशा नहीं, वह भी तुम्हारे ही जैसा दो हाथ और दो पैर का आदमी है। आएगा, तब देख लेना, धक्कमधक्का करने की ज़रूरत नहीं।
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