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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यह कहकर उन्होंने अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और चाहा कि हृदय से लगा लें; लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गई और काँपते हुए स्वर में बोली–नहीं, नहीं, मेरे अंग को मत स्पर्श कीजिए। सूँघा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता। मेरी आत्मा निष्कलंक है; लेकिन मैं अब वहाँ न जाऊँगी, कहीं न जाऊँगी। आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से आभागिनी हूँ, आप जाकर अम्माँ को समझा दीजिए। मेरे लिए अब दु:ख न करें। मैं निर्दोष हूँ लेकिन इस योग्य नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूँ।
चक्रधर से अब न रह गया। उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती छाती से लगाकर बोले–अहिल्या, जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है। मेरी आँखों में तुम आज उससे कहीं निर्मल और पवित्र हो, जितनी पहले थीं। तुम्हारी अग्निपरीक्षा हो चुकी है। अब विलम्ब न करो। ईश्वर ने चाहा, तो कल हम उस प्रेम-सूत्र में बँध जाएँगे, जिसे काल भी नहीं तोड़ सकता, जो अमर और अभेद्य है।
अहिल्या कई मिनट तक चक्रधर के कन्धे पर सिर रखे रोती रही। फिर बोली–एक बात पूछना चाहती हूँ, बताओगे? सच्चे दिल से कहना?
चक्रधर–क्या पूछती हो, पूछो?
अहिल्या–तुम केवल दया-भाव से मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो या प्रेम-भाव से?
इस प्रश्न से स्वयं लज्जित होकर उसने फिर कहा– बात बेढंगी-सी है; लेकिन मैं मूर्ख हूँ, क्षमा करना, यह शंका मुझे बार-बार होती है। पहले भी हुई थी और आज और भी बढ़ गई है।
चक्रधर का दिल बैठ गया। अहिल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गई। यह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही है कि इसे विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूँ–तुम्हें क्या जान पड़ता है अहिल्या?
अहिल्या–मैं जानती, तो आपसे क्यों पूछती?
चक्रधर–अहिल्या, तुम इन बातों से मुझे धोखा नहीं दे सकतीं। चील को चाहे मांस की बोटी न दिखाई दे, चिऊँटी को चाहे शक्कर की सुगन्ध न मिले; लेकिन रमणी का एक-एक रोयाँ पंचेन्द्रियों की भाँति प्रेम के रूप, रस शब्द, स्पर्श का अनुभव किए बिना नहीं रहता। मैं एक ग़रीब आदमी हूँ। दया और धर्म और उद्धार के भावों का मुझमें लेश भी नहीं। केवल इतना ही कह सकता हूँ कि तुम्हें पाकर मेरा जीवन सफल हो जाएगा।
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