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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
अहिल्या ने मुस्कुराकर कहा–तो आपके कथन के अनुसार मैं आपके हृदय का हाल जानती हूँ।
चक्रधर–अवश्य, उससे ज़्यादा, जितना मैं स्वयं जानता हूँ।
अहिल्या–तो साफ़ कह दूँ?
चक्रधर ने कातर भाव से कहा–कहो, सुनूँ।
अहिल्या–तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।
चक्रधर–अहिल्या तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।
अहिल्या–जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बढ़ाऊँगी। मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। मैं इसे भी अपना धन्य भाग समझती हूँ।
चक्रधर–अगर यही प्रश्न मैं तुमसे करता, तो तुम क्या जबाब देतीं, अहिल्या?
अहिल्या–तो साफ़-साफ़ कह देती कि मैं प्रेम से अधिक आपका आदर करती हूँ, आप में श्रद्धा रखती हूँ।
चक्रधर का मुख मलिन हो गया। सारा प्रेमोत्साह, जो उनके हृदय में लहरें मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया। वन वृक्षों-सा लहलहाता हुआ हृदय मरुभूमि-सा दिखाई दिया। निराश भाव से बोले–मैं तो और ही सोच रहा था, अहिल्या!
अहिल्या–तो आप भूल कर रहे थे। मैंने किसी पुस्तक में देखा था कि प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शान्त, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। उसमें दया और क्षमा, श्रद्धा और वात्सल्य, सहानुभूति और सम्मान, अनुराग और विराग, अनुग्रह और उपकार सभी मिले होते हैं। सम्भव है, आज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेमपात्री बन जाऊँ; किन्तु इतनी जल्द सम्भव नहीं। इनमें से कोई एक भाव प्रेम को अंकुरित कर सकता है। उसका विकास अन्य भावों के मिलने ही से होता है। आपके हृदय में अभी केवल दया का भाव अंकुरित हुआ है, मेरे हृदय में सम्मान और भक्ति का। हाँ, सम्मान और भक्ति दया की अपेक्षा प्रेम से कहीं निकटतर हैं; बल्कि यों कहिए कि ये बाल सरस होकर प्रेम का बाल-रूप धारण कर लेते हैं।
अहिल्या के मुख से प्रेम की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गए। उन्होंने कभी यह अनुमान ही न किया था कि उनके विचार इतने उन्नत और उदार हैं। उन्हें यह सोचकर आनन्द हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जायेगा; किन्तु अहिल्या का हाथ आप-ही-आप छूट गया और उन्हें अपनी ओर ताकने का साहस न हुआ। इसके प्रेम का आदर्श कितना ऊँचा है! इसकी दृष्टि में यह व्यवहार वासनामय जान पड़ता होगा। इस विचार ने उनके प्रेमोद्गगारों को शिथिल कर दिया। अवाक् से खड़े रह गए।
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