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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


शंखधर को कभी-कभी प्रबल इच्छा होती थी कि पिताजी के चरणों पर गिर पड़ूँ, और साफ-साफ कह दूं। उसी के मन में यह इच्छा नहीं थी। चक्रधर भी कभी-कभी पुत्र-प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूं– बेटा, तुम मेरी ही आंखों के तारे हो; तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो। वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह-व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएं सुनते कभी न थकते थे। रानी जी उससे कितना प्रेम करती थीं; यह चर्चा सुनकर चक्रधर बहुत दुःखी हो जाते थे।

इस तरह महीना गुजर गया और अब शंखधर को यह फिक्र हुई कि इन्हें किस बहाने से घर से चलूं। अहा, कैसे आनन्द का समय होगा, जब मैं इनके साथ घर पहुंचूंगा।

लेकिन बहुत सोचने पर भी उसे कोई बहाना न मिला। तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूं? माताजी पत्र पाते ही सिर के बल दौड़ी आयेंगी। वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही इतनी देर लगायी। उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया। वहां का पता-ठिकाना, रेल का स्टेशन सभी बातें स्पष्ट करके लिख दीं।

एक महीना पूरा गुजर गया और न अहल्या ही आयी, न कोई दूसरा ही। शंखधर दिन-भर उसकी बाट जोहता रहता। रेल का स्टेशन वहां से पांच मील पर था। रास्ता भी साफ था। फिर भी कोई नहीं आया। चक्रधर जब कहीं चले जाते, तो वह चुपके से स्टेशन की राह लेता और निराश लौट आता। आखिर एक महीने के बाद तीसरे दिन उसे एक पत्र मिला; जिसे पढ़कर उसके शोक की सीमा न रही। अहल्या ने लिखा था– मैं बड़ी अभागिनी हूं। तुम इतनी इतनी कठिन तपस्या करके जिस देवता के दर्शन कर पाये, उसके दर्शन करने की परम अभिलाषा होने पर भी मैं हिल नहीं सकती। एक महीने से बीमार हूं, जीने की आशा नहीं। अगर तुम आ जाओ, तो तुम्हें देख लूं, नहीं तो यह अभिलाषा भी साथ जायेगी! मैं कई महीने हुए, आगरे में पड़ी हूं। जी घबराया करता है। अगर किसी तरह स्वामीजी को ला सको, तो अन्त समय उनके चरणों के दर्शन भी कर लूं। मैं जानती हूं, वह न आयेंगे। व्यर्थ ही उनसे आग्रह न करना; मगर तुम आने में एक क्षण का भी विलम्ब न करना।

शंखधर डाकखाने के सामने खड़ा देर तक रोता रहा।

उसका मुख उतरा हुआ देखकर चक्रधर ने पूछा– क्यों बेटा, आज उदास क्यों मालूम होते हो?

शंखधर– माता जी का पत्र आया है, वह बहुत बीमार है। मैं पिताजी को खोजने निकला था। वह तो न मिले, माताजी भी चली जा रही हैं। आपके पास बड़ी-बड़ी आशाएं लेकर आया था; पर आपने भी अनाथ पर दया न की। आपको परमात्मा ने योगबल दिया है, आप चाहते, तो पिताजी की टोह लगा देते।

चक्रधर ने गम्भीर स्वर में कहा– बेटा, मैं योगी नहीं हूं, पर तुम्हारे पिताजी की टोह लगा चुका हूं, उनसे मिल भी चुका हूं। वह गुप्त रीति से तुम्हें देख चुके हैं।

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