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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानों पृथ्वी के नीचे खिसकी जा रही है, मानो वह जल में बहे जा रहे हैं। पिता बचपन में ही घर से चले गये और माताजी का पांच साल से कुछ समाचार नहीं मिला? भगवान्, क्या यह वही नन्हा-सा बालक है। जिसे अपने हृदय से निकालने की चेष्टा करते हुए आज १६ वर्षों से अधिक हो गये!

उन्होंने हृदय को संभालते हुए पूछा– तुम पांच साल तक कहां रहे बेटा, जो घर नहीं गये?

शंखधर– पिताजी को खोजने निकला था और जब तक वह न मिलेंगे, लौटकर घर न जाऊंगा।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानों पृथ्वी डगमगा रही है, मानों समस्त ब्रह्माण्ड एक प्रलयकारी भूचाल से आन्दोलित हो रहा है। वह सायबान के स्तम्भ के सहारे बैठ गये और ऐसे स्वर में बोले, जो आशा और भय के वेगों को दबाने के कारण क्षीण हो रहा था, यह प्रश्न न था बल्कि-एक जानी हुई बात का समर्थन मात्र था।

तुम्हारा क्या नाम है बेटा? वह धड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाये थे, जैसे कोई अपराधी अपना कर्मदण्ड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाये खड़ा हो।

शंखधर ने जवाब दिया– मेरा नाम तो शंखधर सिंह है।

चक्रधर– और तुम्हारे पिता का क्या नाम है?

शंखधर– उन्हें मुंशी चक्रधरसिंह कहते हैं।

चक्रधर– घर कहां है?

शंखधर– जगदीशपुर!

सर्वनाश! चक्रधर को ऐसा ज्ञात हुआ कि उनकी देह से प्राण निकल गये हैं मानो उनके चारों ओर शून्य है। ‘शंखधर!’ बस, यही एक शब्द उस प्रशस्त शून्य में किसी पक्षी की भांति चक्कर लगा रहा था। ‘शंखधर!’ यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण-शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बांधे हुए थी।

शंखधर को अपने पिता के साथ रहते एक महीना हो गया। न वह जाने का नाम लेता है। न चक्रधर ही जाने को कहते हैं। शंखधर इतना प्रसन्न चित्त रहता है मानों अब उसके लिए संसार में कोई दुःख, कोई बाधा नहीं इतने ही दिनों में उसका रंग-रूप कुछ और हो गया है। मुख पर यौवन का तेज झलकने लगा और जीर्ण शरीर भर आया है। मालूम होता है, कोई अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतधारी ऋषिकुमार हैं।

चक्रधर को अपने हाथों कोई काम नहीं करना पड़ता। शंखधर कभी उन्हें अपनी धोती भी नहीं छांटने देता। दोनों प्राणियों के जीवन का वह समय सबसे आनन्दमय होता है, जब एक प्रश्न करता है और दूसरा उत्तर देता है। बाबाजी अपने जीवन के सारे अनुभव, दर्शन, धर्म, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं। दूसरों से उसकी सज्जनता और सहनशीलता का बखान सुनकर उन्हें कितना गर्व होता है। वह मारे आनन्द के गद्गद हो जाते हैं, उनकी आंखें सजल हो जाती हैं। सब जगह यह बात खुल गयी है कि यह युवक उनका पुत्र है। दोनों सूरतें इतनी मिलती हैं कि चक्रधर के इनकार करने पर भी किसी को विश्वास नहीं आता। जो बात सब जानते हैं, उसे वह स्वयं नहीं जानते और न जानना ही चाहते हैं।

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