उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
यह कहते-कहते शंखधर की आँखें सजल हो गईं। चक्रधर ने विकल होकर कहा– अच्छा लाओ, तुम्हीं अपने हाथ से दे दो। अपशब्द क्यों मुंह से निकालते हो?
शंखधर ने सभी चीजें में से आधी से अधिक उनके सामने रख दीं; और आप एक पंखा लेकर उन्हें झलने लगा। चक्रधर ने वात्सल्यपूर्ण कठोरता से कहा– मालूम होता है, आज तुम मुझे बीमार करोगे। भला, इतनी चीजें मैं खा सकूंगा?
शंखधर– इसीलिए तो मैंने थोड़ी-थोड़ी दी हैं।
चक्रधर– यह थोड़ी-थोड़ी हैं। तो क्या तुम सब-की-सब मेरे ही पेट में ठूंस देना चाहते हो? अब भी बैठोगे या नहीं? मुझे पंखे की जरूरत नहीं।
शंखधर– आप खाइये, मैं तो आपकी जूठन खाऊंगा।
उसकी आँखें फिर सजल हो गयीं। चक्रधर ने तिरस्कार के भाव से कहा– क्यों भाई जूठन क्यों खाओगे? अब तो सब बातें तुम्हारे ही मन की हो रही हैं।
शंखधर– मेरी बहुत दिनों से यही आकांक्षा थी। जब से आपकी कीर्ति सुनी, तभी से यह अवसर खोज रहा था।
चक्रधर को फिर हार माननी पड़ी। वह एक एकान्तवासी, संयमी, व्रतधारी, योगी आज इस अपरिचित दीन बालक के दुराग्रहों को किसी भांति न टाल सकता था।
चक्रधर जब भोजन करके उठ गये, तो उसने उसी पत्तल में अपनी चीजें डाल लीं और भोजन करने बैठा। ओह! इस भोजन में कितना स्वाद था! क्या सुधा में इतना स्वाद हो सतता है!
चक्रधर हाथ मुंह धोकर गद्गद् कण्ठ से बोले-तुमने आज मेरे दो नियम भंग कर दिये। बिना जाने बूझे किसी को मेहमान बना लेने का यही फल होता है। मैं ऐसे जिद्दी लड़के को अपने साथ और न रखूंगा। तुम्हारा घर कहां है? यहां से कितनी दूर है?
शंखधर– मेरे तो कोई घर ही नहीं!
चक्रधर– माता-पिता तो होंगे? वह किस गाँव में रहते हैं?
शंखधर– यह मुझे नहीं मालूम। पिताजी तो मेरे बचपन ही में घर से चले गये थे और माताजी का पांच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला।
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