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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


एक आदमी पानी लाया। शंखधर ने मुंह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले; लेकिन चक्रधर ने मना किया-हां-हां, यह क्या? अभी पानी न पियो। आओ, कुछ भोजन कर लो।

शंखधर– बड़ी प्यास लगी है।

चक्रधर– पानी कहीं भागा तो नहीं जाता। कुछ खाकर पीना, और वह भी इतना नहीं कि पेट में पानी डोलने लगे।

शंधखर-दो ही घूंट पी लूं नहीं रहा जाता।

चक्रधर ने आकर उसके हाथ से लोटा छीन लिया और कठोर स्वर में कहा– अभी तुम एक बूंद पानी नहीं पी सकते। क्या जान देने पर उतारु हो गये हो!

शंखधर को इस भर्त्सना में जो आनन्द मिल रहा था, यह कभी माता की प्रेम-भरी बातों में भी न मिला था।

मन्दिर के पीछे छोटा-सा बाग और कुआं था। वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी। चक्रधर अपना भोजन आप पकाते थे, बर्तन भी आप ही धोते थे, पानी भी खुद खींचते थे। शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही, घी सब कुछ है। उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब उसे देखा कि ये सारे पदार्थ उसी के लिए मंगवाये गये हैं। चक्रधर ने उसके लिए खाना पत्तल में रख दिया और आप कुछ रोटियां और भाजी लेकर बैठे, जो खुद उन्होंने बनायी थीं।

शंखधर ने कहा– आप तो सब मुझी को दिये जाते हैं, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं।

चक्रधर– मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता। मेरी पाचनशक्ति अच्छी नहीं है। दिन में एक बार खा लिया करता हूँ।

शंखधर– अगर आप न खायेंगे, तो मैं भी न खाऊंगा।

आखिर शंखधर के आग्रह से चक्रधर को अपना सोलह वर्षों का पाला हुआ नियम तोड़ना पड़ा। उन्होंने झुंझलाकर कहा– भाई, तुम बड़े जिद्दी मालूम होते हो। अच्छा, लो, मैं भी खाता हूं।

उन्होंने सब चीजों में से जरा-जरा सा निकालकर अपनी पत्तल में रख लिया और बाकी चीजें शंखधर के आगे रख दीं।

शंखधर– आपने तो केवल उलाहना छुड़ाया है। लाइए मैं परस दूं।

चक्रधर– अगर तुम इस तरह जिद करोगे, तो मैं तुम्हारी दवा न करूंगा।

शंखधर– मुझे क्या, न दवा दीजिएगा। तो यहीं पड़ा-पड़ा मर जाऊंगा। कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है?

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